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________________ तत्व-निरूपण 165 श्रित या जीविकाश्रित ब्राह्मण, क्षत्रियादि वर्गों को लेकर ऊँच-नीच व्यवहारकी भेदक भित्ति खड़ी कर, मानवको मानवसे इतना जुदा कर दिया, जो एक उच्चाभिमानी मांसपिण्ड दूसरेकी छायासे या दूसरेको छूनेसे अपनेको अपवित्र मानने लगा। बाह्य परपदार्थोके संग्रही और परिग्रहीको महत्त्व देकर इसने तृष्णाकी पूजा की। जगत्में जितने संघर्ष और हिंसाएँ हुई हैं वे सब परपदार्थोकी छीना-झपटीके कारण हुई हैं / अतः जब तक मुमुक्षु अपने वास्तविक स्वरूपको तथा तृष्णाके मूल कारण ‘परमें आत्मबुद्धि'को नहीं समझ लेता तब तक दुःख-निवृत्तिकी समुचित भूमिका ही तैयार नहीं हो सकती। बुद्धने संक्षेपमें पाँच स्कन्धोंको दुःख कहा है। पर महावीरने उसके भीतरी तत्त्वज्ञानको भी बताया। चूंकि ये स्कन्ध आत्मस्वरूप नहीं हैं, अतः इनका संसर्ग ही अनेक रागादिभावोंका सर्जक है और दुःखस्वरूप है। निराकुल सुखका उपाय आत्ममात्रनिष्ठा और परपदार्थोंसे ममत्वका हटाना ही है। इसके लिए आत्माकी यथार्थ दृष्टि ही आवश्यक है। आत्मदर्शनका यह रूप परपदार्थोंमें द्वेष करना नहीं सिखाता, किन्तु यह बताता है कि इनमें जो तुम्हारी यह तृष्णा फैल रही है, वह अनधिकार चेष्टा है। वास्तविक अधिकार तो तुम्हारा मात्र अपने विचार अपने व्यवहारपर ही है। अतः आत्माके वास्तविक स्वरूपका परिज्ञान हुए बिना दुःखनिवृत्ति या मुक्तिकी सम्भावना ही नहीं की जा सकती। नैरात्म्यवादको असारता: अतः आ० धर्मकीर्तिकी यह आशंका भी निर्मूल है कि "आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ। अनयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते / " -प्रमाणवा० 11221 / अर्थात्-आत्माको 'स्व' माननेसे दूसरोंको 'पर' मानना होगा। स्व और पर विभाग होते ही स्वका परिग्रह और परसे द्वेष होगा। परिग्रह और द्वेष होनेसे रागद्वेषमूलक सैकड़ों अन्य दोष उत्पन्न होते हैं। यहाँ तक तो ठीक है कि कोई व्यक्ति आत्माको स्व माननेसे आत्मेतरको पर मानेगा। पर स्वपरविभागसे परिग्रह और द्वेष कैसे होंगे? आत्मस्वरूपका परिग्रह कैसा ? परिग्रह तो शरीर आदि परपदार्थोंका और उसके सुखसाधनोंका होता है, जिन्हें आत्मदर्शी व्यक्ति छोड़ेगा ही, ग्रहण नहीं करेगा। उसे तो जैसे स्त्री आदि सुख-साधन 'पर' है वैसे शरीर भी। राग और द्वेष भी शरीरादिके सुख-साधनों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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