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________________ 162 जैनदर्शन अगल-बगलमें उफान लेकर अन्तमें एक खिचड़ी-सी बन जाती है, उसी तरह प्रतिक्षण बँधनेवाले अच्छे या बुरे कर्मोंमें, शुभभावोंसे शुभकर्मोंमें रस-प्रकर्ष और स्थितिवृद्धि होकर अशुभ कर्मोंमें रसहीनता और स्थितिच्छेद हो जाता है। अन्तमें एक पाकयोग्य स्कन्ध बच रहता है, जिसके क्रमिक उदयसे रागादि भाव और सुखादि उत्पन्न होते हैं। अथवा जैसे पेटमें जठराग्निसे आहारका मल, मूत्र, स्वेद आदिके रूपसे कुछ भाग बाहर निकल जाता है, कुछ वहीं हजम होकर रक्तादि रूपसे परिणत होता है और आगे जाकर वीर्यादिरूप बन जाता है। बीचमें चूरण-चटनी आदिके संयोगसे उसकी लघुपाक, दीर्घपाक आदि अवस्थाएँ भी होती हैं, पर अन्तमें होनेवाले परिपाकके अनुसार ही भोजनको सुपच या दुष्पच कहा जाता है, उसी तरह कर्मका भी प्रतिसमय होनेवाले अच्छे और बुरे भावोंके अनुसार तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मध्यम, मृदुतर और मृदुतम आदि रूपसे परिवर्तन बराबर होता रहता है और अन्तमें जो स्थिति होती है, उसके अनुसार उन कर्मोंको शुभ या अशुभ कहा जाता है। यह भौतिक जगत् पुद्गल और आत्मा दोनोंसे प्रभावित होता है / जब कर्मका एक भौतिक पिण्ड, जो विशिष्ट शक्तिका स्रोत है, आत्मासे सम्बद्ध होता है, तो उसकी सूक्ष्म और तीव्रशक्तिके अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते हैं और प्राप्तसामग्रीके अनुसार उस संचित कर्मका तीव्र, मन्द और मध्यम आदि फल मिलता है। इस तरह यह कर्मचक्र अनादिकालसे चल रहा है और तब तक चाल रहेगा जब तक कि बन्धकारक मूलरागादिवासनाओंका नाश नहीं कर दिया जाता। बाह्य पदार्थोंके-नोकर्मोके समवधानके अनुसार कर्मोंका यथासम्भव प्रदेशोदय या फलोदय रूपसे परिपाक होता रहता है। उदयकालमें होनेवाले तीव्र, मध्यम और मन्द शुभाशुभ भावोंके अनुसार आगे उदयमें आनेवाले कर्मोके रसदानमें भी अन्तर पड़ जाता है / तात्पर्य यह कि कर्मोका फल देना, अन्य रूपमें देना या न देना, बहुत कुछ हमारे पुरुषार्थके ऊपर निर्भर करता है / ___इस तरह जैन दर्शनमें यह आत्मा अनादिसे अशुद्ध माना गया है और प्रयोगसे यह शुद्ध हो सकता है / एक बार शुद्ध होनेके बाद फिर अशुद्ध होनेका कोई कारण नहीं रह जाता / आत्माके प्रदेशोंमें संकोच और विस्तार भी कर्मके निमित्तसे ही होता है। अतः कर्मनिमित्तिके हट जानेपर आत्मा अपने अन्तिम आकारमें रह जाता है और ऊर्ध्व लोकके अग्र भागमें स्थिर हो अपने चैतन्यमें प्रतिष्ठित हो जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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