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________________ 149 घट्दव्य विवेचनं भेद नहीं है।" उचित मालूम नहीं होता; क्योंकि जगत्का व्यवहार मात्र द्रव्ययोग्यतासे ही नहीं चलता, किन्तु तत्पर्याययोग्यतासे चलता है। ऊँटके शरीरके पुद्गल और दहीके पुद्गल, द्रव्यरूपसे समान होनेपर भी 'एक' नहीं हैं और चूंकि वे स्थूल पर्यायरूपसे भी अपना परस्पर भेद रखते हैं तथा उनकी तत्पर्याययोग्यताएँ भी जुदी-जुदी हैं, अतः दही ही खाया जाता है, ऊँटका शरीर नहीं। सांख्यके मतसे यह समाधान नहीं हो सकता; क्योंकि जब एक ही प्रधान दही और ऊँट दोनों रूपसे विकसित हुआ है, तब उनमें भेदका नियामक क्या है ? एक तत्त्वमें एक ही समय विभिन्न देशोंमें विभिन्न प्रकारके परिणमन नहीं हो सकते। इसी तरह यदि घट अवयवी और उसके उत्पादक मिट्टीके परमाणु परस्पर सर्वथा विभिन्न हैं; तो क्या नियामक है जो घड़ा वहीं उत्पन्न हो अन्यत्र नहीं ? प्रतिनियत कार्य-कारणकी व्यवस्थाके लिए कारणमें योग्यता या शक्तिरूपसे कार्यका सद्भाव मानना आवश्यक है। यानी कारणमें कार्योत्पादनकी योग्यता या शक्ति रहनी ही चाहिए / योग्यता, शक्ति और सामर्थ्य आदि एकजातीय मूलद्रव्योंमें समान होनेपर भी विभिन्न अवस्थाओंमें उनकी सीमा नियत हो जाती है और इसी नियतताके कारण जगत्में अनेक प्रकारके कार्यकारणभाव बनते हैं / यह तो हुई अनेक पुद्गलद्रव्योंके संयुक्त स्कन्धकी बात / ___ एक द्रव्यकी अपनी क्रमिक अवस्थाओंमें अमुक उत्तर पर्यायका उत्पन्न होना केवल द्रव्ययोग्यतापर ही निर्भर नहीं करता, किन्तु कारणभूत पर्यायकी तत्पर्याययोग्यतापर भी। प्रत्येक द्रव्यके प्रतिसमय स्वभावतः उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूपसे परिणामी होनेके कारण सारी व्यवस्थाएँ सदसत्कार्यवादके आधारसे जम जाती हैं। विवक्षित कार्य अपने कारणमें कार्याकारसे असत् होकर भी योग्यता या शक्तिके रूपमें सत् है। यदि कारणद्रव्यमें वह शक्ति न होती तो उससे वह कार्य उत्पन्न ही नहीं हो सकता था। एक अविच्छिन्न प्रवाहमें चलनेवाली धाराबद्ध पर्यायोंका परस्पर ऐसा कोई विशिष्ट सम्बन्ध तो होना ही चाहिए, जिसके कारण अपनी पूर्व पर्याय ही अपनी उत्तर पर्यायमें उपादान कारण हो सके, दूसरेको उत्तर पर्यायमें नहीं। यह अनुभवसिद्ध व्यवस्था न तो सांख्यके सत्कार्यवादमें सम्भव है, और न बौद्ध तथा नैयायिक आदिके असत्कार्यवादमें ही। सांख्यके पक्षमें कारणके एक होनेसे इतनी अभिन्नता है कि कार्यभेदको सिद्ध करना असम्भव है, और बौद्धोंके यहाँ इतनी भिन्नता है कि अमुक क्षणके साथ अमुक क्षणका उपादानउपादेयभाव बनना कठिन है। इसी तरह नैयायिकोंके अवयवी द्रव्यका अमुक अवयवोंके ही साथ समवाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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