SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ जैनदर्शन अंशसे समा जाना है । ब्रह्मवाद कुछ पदार्थों को एक ब्रह्मका विवर्त मानता है, प्रकृतिक पर्याय | और आकाशको एक प्रकृतिका परिणमन मानना ब्रह्मवादकी मायामें ही एक आगे बढ़कर चेतन और अचेतन सभी और ये सांख्य समस्त जड़ोंको एक जड़ यदि त्रिगुणात्मकत्वका अन्वय होनेसे सब एक त्रिगुणात्मक कारणसे समुत्पन्न हैं, तो आत्मत्वका अन्वय सभी आत्माओंमें पाया जाता है, और सत्ताका अन्वय सभी चेतन और अचेतन पदार्थों में पाया जाता है; तो इन सबको भी एक 'अद्वैत - सत्' कारणसे उत्पन्न हुआ मानना पड़ेगा, जो कि प्रतीति और वैज्ञानिक प्रयोग दोनोंसे विरुद्ध है । अपने-अपने विभिन्न कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले स्वतन्त्र जड़चेतन और मूर्त-अमूर्त आदि विविध पदार्थोंमें अनेक प्रकारके पर अपर सामान्यों का सादृश्य देखा जाता है, पर इतने मात्रसे सब एक नहीं हो सकते । अतः आकाश प्रकृतिकी पर्याय न होकर एक स्वतन्त्र द्रव्य है, जो अमूर्त, निष्क्रिय, सर्वव्यापक और अनन्त है । जल आदि पुद्गल द्रव्य अपनेमें जो अन्य पुद्गलादि द्रव्योंको अवकाश या स्थान देते हैं, वह उनके तरल परिणमन और शिथिल बन्धके कारण बनता है । अन्ततः जलादिके भीतर रहनेवाला आकाश ही अवकाश देनेवाला सिद्ध होता है । इस आकाशसे ही धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका गति और स्थितिरूप काम नहीं निकाला जा सकता; क्योंकि यदि आकाश ही पुद्गलादि द्रव्योंकी गति और स्थिति में निमित्त हो जाय तो लोक और अलोकका विभाग ही नहीं बन सकेगा, और मुक्त जीव, जो लोकान्तमें ठहरते हैं, वे सदा अनन्त आकाशमें ऊपर की ओर उड़ते रहेंगे । अतः आकाशको गमन और स्थितिमें साधारण कारण नहीं माना जा सकता । यह आकाश भी अन्य द्रव्योंकी भाँति 'उत्पाद, व्यय और धोव्य' इस सामान्य द्रव्यलक्षण से युक्त है, और इसमें प्रतिक्षण अपने अगुरु-लघु गुणके कारण पूर्व पर्यायका विनाश और उत्तर पर्यायका उत्पाद होते हुए भी सतत अविच्छिन्नता बनी रहती है । अतः यह भी परिणामी नित्य है । आजका विज्ञान प्रकाश और शब्दकी गतिके लिए जिस ईथररूप माध्यमकी कल्पना करता है, वह आकाश नहीं है । वह तो एक सूक्ष्म परिणमन करनेवाला लोकव्यापी पुद्गल-स्कन्ध ही है; क्योंकि मूर्त्त - द्रव्योंकी गतिका अन्तरंग आधार अमूर्त पदार्थ नहीं हो सकता | आकाशके अनन्त प्रदेश इसलिए माने जाते हैं कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy