SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ जैनदर्शन साधारण कारण होता है। इसके अस्तित्वका पता भी लोककी सीमाओंपर ही चलता है। जब आगे धर्मद्रव्य न होनेके कारण जीव और पुद्गल द्रव्य गति नहीं कर सकते तब स्थितिके लिए इसकी सहकारिता अपेक्षित होती है। ये दोनों द्रव्य स्वयं गति नहीं करते; किन्तु गमन करनेवाले और ठहरनेवाले जीव और पुद्गलोंकी गति और स्थितिमें साधारण निमित्त होते हैं। लोक और अलोकका विभाग ही इनके सद्भावका अचूक प्रमाण है। ___यदि आकाशको हो स्थितिका कारण मानते हैं, तो आकाश तो अलोकमें भी मौजूद है । वह चूंकि अखण्ड द्रव्य है, अतः यदि वह लोकके बाहरके पदार्थोंकी स्थितिमें कारण नहीं हो सकता; तो लोकके भीतर भी उसकी कारणता नहीं बन सकती। इसलिए स्थितिके साधारण कारणके रूपमें अधर्मद्रव्यका पृथक अस्तित्व है। ये धर्म और अधर्म द्रव्य, पुण्य और पापके पर्यायवाची नहीं हैं-स्वतंत्र द्रव्य हैं। इनके असंख्यात प्रदेश हैं, अतः बहुप्रदेशी होने के कारण इन्हें 'अस्तिकाय' कहते हैं और इसलिए इनका 'धर्मास्तिकाय' और 'अधर्मास्तिकाय' के रूपमें भी निर्देश होता है। इनका सदा शुद्ध परिणमन होता है। द्रव्यके मूल परिणामीस्वभावके अनुसार पूर्व पर्यायको छोड़ने और उत्तर पर्यायको धारण करनेका क्रम अपने प्रवाही अस्तित्वको बनाये रखते हुए अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्त काल तक चालू रहेगा। आकाश द्रव्य : समस्त जीव-अजीवादि द्रव्योंको जो जगह देता है अर्थात् जिसमें ये समस्त जोव-पुद्गलादि द्रव्य युगपत् अवकाश पाये हुए हैं, वह आकाश द्रव्य है। यद्यपि पुद्गलादि द्रव्योंमें भी परस्पर हीनाधिक रूपमें एक दूसरेको अवकाश देना देखा जाता है, जैसे कि टेबिल पर किताब या बर्तनमें पानी आदिका, फिर भी समस्त द्रव्योंको एक साथ अवकाश देनेवाला आकाश ही हो सकता है। इसके अनन्त प्रदेश हैं। इसके मध्य भागमें चौदह राजू ऊँचा पुरुषाकार लोक है, जिसके कारण आकाश लोकाकाश और अलोकाकाशके रूपमें विभाजित हो जाता है । लोकाकाश असंख्यात प्रदेशोंमें है, शेष अनन्त अलोक है, जहाँ केवल आकाश ही आकाश है। यह निष्क्रिय है और रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दादिसे रहित होनेके कारण अमूर्तिक है । 'अवकाश दान' ही इसका एक असाधारण गुण है, जिस प्रकार कि धर्मद्रव्यका गमनकारणत्व और अधर्मद्रव्यका स्थितिकारणत्व । यह सर्वव्यापक है और अखण्ड है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy