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________________ षद्रव्य विवेचन १२७ शब्दकी उत्पत्तिका भी अर्थ है आसपासके स्कन्धोंमें शब्दपर्यायका उत्पन्न होना। तात्पर्य यह कि शब्द स्वयं द्रव्यकी पर्याय है, और इस पर्यायके आधार हैं पुद्गल स्कन्ध । अमूर्तिक आकाशके गुणमें ये सब नाटक नहीं हो सकते। अमूर्त द्रव्यका गुण तो अमूर्त ही होगा, वह मूर्त्तके द्वारा गृहीत नहीं हो सकता। विश्वका समस्त वातावरण गतिशील पद्गलपरमाणु और स्कन्धोंसे निर्मित है। उसीमें परस्पर संयोग आदि निमित्तोंसे गर्मी, सर्दी, प्रकाश, अन्धकार, छाया आदि पर्याय उत्पन्न होतीं और नष्ट होती रहती हैं। गर्मी, प्रकाश और शब्द ये केवल शक्तियाँ नहीं हैं, क्योंकि शक्तियाँ निराश्रय नहीं रह सकतीं। वे तो किसीन-किसी आधारमें रहेंगी और उनका आधार है-यह द्गल द्रव्य । परमाणुकी गति एक समयमें लोकान्त तक ( चौदह राजु ) हो सकती है, और वह गतिकालमें आसपासके वातावरणको प्रभावित करता है। प्रकाश और शब्दकी गतिका जो लेखा-जोखा आजके विज्ञानने लगाया है, वन परमाणुकी इस स्वाभाविक गतिका एक अल्प अंश है। प्रकाश और गर्मी के स्कन्ध एकदेशसे सुदूर देश तक जाते हुए अपने वेग ( force ) के अनुसार वातावरणको प्रकाशमय और गर्मी पर्यायसे युक्त बनाते हुए जाते हैं । यह भी संभव है कि जो प्रकाश आदि स्कन्ध बिजलीके टार्च आदिसे निकलते हैं, वे बहुत दूर तक स्वयं चले जाते हैं और अन्य गतिशील पुद्गल स्कन्धोंको प्रकाश, गर्मी या शब्दरूप पर्याय धारण कराके उन्हें आगे चला देते हैं। आजके वैज्ञानिकोंने बेतारका तार और बिना तारके टेलीफोनका भी आविष्कार कर लिया है। जिस तरह हम अमेरिकामें बोले गये शब्दोंको यहाँ सुन लेते हैं, उसी तरह अब बोलनेवालेके फोटोको भी सुनते समय देख सकेंगे। पुद्गलके खेल : यह सब शब्द, आकृति, प्रकाश, गर्मी, छाया, अन्धकार आदिका परिवहन तीव्र गतिशील पुद्गलस्कन्धोंके द्वारा ही हो रहा है। परमाणु-बमकी विनाशक शक्ति और हॉइड्रोजन बमकी महाप्रलय शक्तिसे हम पुद्गलपरमाणुकी अनन्त शक्तियोंका कुछ अन्दाज लगा सकते हैं। ___ एक दूसरेके साथ बँधना, सूक्ष्मता, स्थूलता, चौकोण, षट्कोण आदि विविध आकृतियाँ, सुहावनी चाँदनी, मंगलमय उषाकी लाली आदि सभी कुछ पुद्गल स्कन्धोंकी पर्यायें हैं । निरन्तर गतिशील और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणमनवाले अनन्तानन्त परमाणुओंके परस्पर संयोग और विभागसे कुछ नैसर्गिक और कुछ प्रायोगिक परिणमन इस विश्वके रंगमञ्चपर प्रतिक्षण हो रहे हैं । ये सब माया या अविद्या नहीं हैं, ठोस सत्य हैं । स्वप्नकी तरह काल्पनिक नहीं हैं, किन्तु अपनेमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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