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________________ षद्रव्य विवेचन १२१ एक ईश्वर संसारके प्रत्येक अणु-परमाणुकी क्रियाका संचालक बने और प्रत्येक जीवके अच्छे-बुरे कार्योंका भी स्वयं वही प्रेरक हो और फिर वही बैठकर संसारी जीवोंके अच्छे-बुरे कर्मोंका न्याय करके उन्हें सुगति और दुर्गतिमें भेजे, उन्हें सुख-दुख भोगनेको विवश करे यह कैसी क्रीड़ा है ! दुराचारके लिए प्रेरणा भी वही दे, और दण्ड भी वही । यदि सचमुच कोई एक ऐसा नियन्ता है तो जगत्की विषमस्थितिके लिए मूलतः वही जवाबदेह है। अतः इस भूल-भुलैयाके चक्रसे निकलकर हमें वस्तुस्वरूपकी दृष्टिसे ही जगत्का विवेचन करना होगा और उस आधारसे ही जब तक हम अपने ज्ञानको सच्चे दर्शनकी भूमिपर नहीं पहुँचायेंगे, तब तक तत्त्वज्ञानकी दिशामें नहीं बढ़ सकते। यह कैसा अन्धेर है कि ईश्वर हत्या करनेवालेको भी प्रेरणा देता है, और जिसकी हत्या होती है उसे भी; और जब हत्या हो जाती है, तो वही एकको हत्यारा ठहराकर दण्ड भी दिलाता है। उसकी यह कैसी विचित्र लीला है। जब व्यक्ति अपने कार्यमें स्वतन्त्र ही नहीं है, तब वह हत्याका कर्ता कैसे ? अतः प्रत्येक जीव अपने कार्योंका स्वयं प्रभु है, स्वयं कर्ता है और स्वयं भोक्ता है। अतः जगत्-कल्याणकी दृष्टि से और वस्तुके स्वाभाविक परिणमनकी स्थितिपर गहरा विचार करनेसे यही सिद्धान्त स्थिर होता है कि यह जगत् स्वयं अपने परिणामी स्वभावके कारण प्राप्त सामग्नीके अनुसार परिवर्तमान है। उसमें विभिन्न व्यक्तियोंकी अनुकूलता और प्रतिकूलतासे अच्छेपन और बुरेपनको कल्पना होती रहती है । जगत् तो अपनी गतिसे चला जा रहा है । 'जो करेगा, वही भोगेगा। जो बोयेगा, वही काटेगा।' यह एक स्वाभाविक व्यवस्था है। द्रव्योंके परिणमन कहीं चेतनसे प्रभावित होते हैं, कहीं अचेतनसे प्रभावित और कहीं परस्पर प्रभावित । इनका कोई निश्चित नियम नहीं है, जब जैसी सामग्री प्रस्तुत हो जाती है, तब वैसा परिणमन बन जाता है। जीवोंके भेद संसारी और मुक्तः जैसा कि ऊपरके विवेचनसे स्पष्ट होता है, कि यह जीव अपने संस्कारोंके कारण स्वयं बँधा है और अपने पुरुषार्थसे स्वयं छूटकर मुक्त हो सकता है, उसीके अनुसार जीव दो श्रेणियोंमें विभाजित हो जाते हैं। एक संसारी-जो अपने संस्कारोंके कारण नाना योनियोंमें शरीरोंको धारणकर जन्म-मरण रूपसे संसरण कर रहे हैं । ( २ ) दूसरे मुक्त-जो समस्त कर्मसंस्कारोंसे छूटकर अपने शुद्ध चैतन्यमें सदा परिवर्तमान हैं । जब जीव मुक्त होता है, तब वह दीपशिखाकी तरह अपने ऊर्ध्व-गमन स्वभावके कारण शरीरके बन्धनोंको तोड़कर लोकाग्रमें जा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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