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जैनदर्शन
इसलिए वह स्वभाव से अमूर्तिक है । फिर भी प्रदेशों में संकोच और विस्तार होनेसे
वह अपने छोटे-बड़े शरीरके परिमाण हो जाता है । आत्माके आकारके विषय में भारतीय दर्शनों में मुख्यतया तीन मत पाये जाते हैं । उपनिषद् में आत्माके सर्वगत और व्यापक होने का जहाँ उल्लेख मिलता है, वहाँ उसके अंगुष्ठमात्र तथा अणुरूप होने का भी कथन है ।
व्यापक आत्मवाद :
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वैदिक दर्शनोंमें प्रायः आत्माको अमूर्त और व्यापी स्वीकार किया है । व्यापक होने पर भी शरीर और मनके सम्बन्धसे शरीरावच्छिन्न ( शरीरके भीतरके ) आत्मप्रदेशोंमें ज्ञानादि विशेषगुणोंकी उत्पत्ति होती है । अमूर्त्त होनेके कारण आत्मा निष्क्रिय भी है । उसमें गति नहीं होती । शरीर और मन चलता है, और अपनेसे सम्बद्ध आत्मप्रदेशों में ज्ञानादिकी अनुभूतिका साधन बनता जाता है ।
इस व्यापक आत्मवाद में सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि एक अखण्ड द्रव्य कुछ भागोंमें सगुण और कुछ भागोंमें निर्गुण कैसे रह सकता है ? फिर जब सब आत्माओंका सम्बन्ध सबके शरीरोंके साथ है, तब अपने-अपने सुख, दुख और भोगका नियम बनना कठिन है । अदृष्ट भी नियामक नहीं हो सकता; क्योंकि प्रत्येकके अदृष्टका सम्बन्ध उसकी आत्माकी तरह अन्य शेष आत्माओंके साथ भी है । शरीरसे बाहर अपनी आत्माकी सत्ता सिद्ध करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है । व्यापकपक्ष में एकके भोजन करने पर दूसरेको तृप्ति होनी चाहिए, और इस तरह समस्त व्यवहारोंका सांकर्य हो जायगा । मन और शरीर के सम्बन्धकी विभिन्नतासे व्यवस्था बैठाना भी कठिन है । 'सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसमें संसार और मोक्षकी व्यवस्थाएँ ही चौपट हो जाती हैं । यह सर्वसम्मत नियम है कि जहाँ गुण पाये जाते हैं, वहीं उसके आधारभूत द्रव्यका सद्भाव माना जाता है । गुणोंके क्षेत्रसे tar क्षेत्र न तो बड़ा होता है, और न छोटा ही । सर्वत्र आकृतिमें गुणीके बराबर ही गुण होते हैं । अब यदि हम विचार करते हैं तो जब ज्ञानदर्शनादि आत्माके गुण हमे शरीरके बाहर उपलब्ध नहीं होते तब गुणोंके बिना गुणीका सद्भाव शरीर के बाहर कैसे माना जा सकता है ?
अणु आत्मवाद :
इसी तरह आत्माको अणुरूप मानने पर अंगूठे में काँटा चुभने से सारे शरीरके आत्मप्रदेशोंमें कम्पन और दुःखका अनुभव होना असम्भव हो जाता है । अणुरूप १. “ सर्वव्यापिनमात्मानम् । ” - श्वे० १।१६ ।
२.
" अङ्ग ष्ठमात्रः पुरुषः " -श्वे० ३।१३ | कठो० ४।१२ । "अणीयान् ब्रीहेर्वा यवाद्वा..." - छान्दो० ३ १४ | ३ |
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