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द्वितीय संस्करणकै सम्बन्धमें ( द्वितीय संस्करणका प्रकाशकीय)
प्रस्तुत ग्रन्थका प्रथम संस्करण वीर - निर्वाण संवत् २४८१, सन् १९५५ में प्रकाशित हुआ था । जैनदर्शन के अनुरागी मनीषियों तथा अन्य जिज्ञासुओंने इसे जिस आदर, रुचि और जिज्ञासासे अपनाया, वह ग्रन्थमाला के लिए गर्व की बात है । यह महत्त्वपूर्ण कृति कितनी लोकप्रिय हुई, इसका अनुमान इसीसे लग जाता है कि यह ग्रन्थ तीन वर्ष पूर्व ही दुर्लभ एवं अप्राप्य हो गया था और लोगोंकी माँग नित्य प्रति आ रही थी ।
इसके लेखक स्वर्गीय डॉ० महेन्द्रकुमारजी आज विद्यमान होते, तो उन्हें अपनी इस कृतिकी लोकप्रियता देखकर कितनी प्रसन्नता न होती । उन्होंने अपने अल्प कार्यकालमें ही जैनदर्शनकी जो सेवा की है, वह अद्भुत और असाधारण है । न्यायकुमुदचन्द्र ( दो भाग ), न्यायविनिश्चयविवरण ( दो भाग), अकलङ्कग्रन्थत्रय, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, तत्त्वार्थवात्तिक, तत्त्वार्थवृत्ति और सिद्धिविनिश्चयटीका ( दो भाग ) जैसे महनीय एवं विशाल दार्शनिक ग्रन्थोंका असाधारण योग्यता और विपुल अध्यवसाय के साथ उन्होंने सम्पादन किया तथा उनपर चिन्तनपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ लिखी हैं । उनके अध्यवसायके फलस्वरूप ही ये अपूर्व दार्शनिक ग्रन्थ प्रकाशमें आ सके हैं । अन्तिम ग्रन्थपर तो हिन्दू विश्वविद्यालय काशीने उन्हें पी-एच० डी० ( डॉक्टरेट ) की उपाधि देकर सम्मानित भी किया । इसके साथ ही वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालयने भी उनकी अपने यहाँ जैनदर्शन-विभागके अध्यक्षपदपर नियुक्ति करके उन्हें सम्मान प्रदान किया था । पर भवितव्यताने उन्हें इन दोनों सम्मानोंका उपभोग नहीं करने दिया और असमयमें ही उन्हें इस संसार से चला जाना पड़ा । वे आज नहीं हैं, पर उनकी अमर कृतियाँ विद्यमान हैं, जो उन्हें चिरस्मरणीय रखेंगी ।
ग्रन्थमालाके पास यद्यपि आर्थिक साधन नहीं हैं, यह स्पष्ट है, फिर भी पूज्य वर्णोजीका, जिनकी वरद छाया आज हमें प्राप्त नहीं है, परोक्ष आशीर्वाद और उनके उपकारोंसे उपकृत समाजका बल उसे प्राप्त है । २८ दिसम्बर १९६५ में ग्रन्थमाला-प्रबन्ध-समितिकी वाराणसी - बैठक में इस ग्रन्थके प्रकाशनका प्रस्ताव रखा गया, जिसे समितिने सहर्ष पारित किया । दायित्व आ जानेसे उसके प्रकाशनकी
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