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________________ गुणस्थान - मोह और योग के माध्यम से जीव के परिणामो मे होने वाले उतार-चढाव को गुणस्थान कहते है। जीवो के परिणाम यद्यपि अनन्त है परन्तु उन सभी को चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया हे । चौदह गुणस्थानी के नाम इस प्रकार है - मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग् - मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, सयतासयत, प्रमत्त-सयम, अप्रमत्त-सयत, अपूर्वकरण-शुद्धि-सयत, अनिवृत्तिकरणशुद्धि-सयत, सूक्ष्म-साम्पराय -शुद्धि-सयत, उपशान्त - कषाय- वीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय- वीतराग छद्यस्थ, सयोग केवली-जिन और अयोगकेवली - जिन । गुप्ति-ससार के कारणभूत रागादि से जो आत्मा की रक्षा करे उसे गुप्ति कहते है । अथवा सम्यक् प्रकार से योगो का निग्रह करना गुप्ति है । अथवा मन, वचन काय की स्वच्छद प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति है । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन गुप्ति है । गुरु-गुरु शब्द का अर्थ महान् है। लोक मे अध्यापक व माता-पिता को गुरु कहते है । मोक्षमार्ग मे आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन गुरु है । अर्हन्त भगवान त्रिलोक गुरु है। शिष्यो को जिनदीक्षा या प्रव्रज्या देने वाले आचार्य को दीक्षा गुरु कहते है। जो प्रायश्चित आदि देकर शिष्य को दोष मुक्त करते है और वैराग्यजनक परमागम द्वारा शिष्य का पोषण करते है वे निर्यापक कहलाते है। उन्हे शिक्षा-गुरु या श्रुत-गुरु भी कहते है । गुरुमूढ़ता-हिसादिपाप-क्रियाओ मे और आरम्भ-परिग्रह मे लिप्त रहने वाले साधुओ को गुरु मानकर उनकी भक्ति, वदना, प्रशसा आदि करना गुरुमूढता है । इसे समय- मूढता भी कहते हैं । जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 89
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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