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________________ गना-नदी-चौदह महानदिया में प्रथम नदी। यह हिमवान् पर्वत पर पद्य-मरोवर के पूर्व द्वार से निकली है । इसके उद्गम स्थान का विस्तार र योजन और एक कोस तथा गहराई आधा कोस है। यह अपने उदगम से पाच सो योजन पूर्व दिशा की ओर वहकर गगाकूट से लोटती हुई दक्षिण की ओर भरत क्षेत्र में आयी है । अत में यह चौदह हजार सहायक नदियों के साथ पूर्व-लवण-समुद्र में प्रवेश करती है। इसे जाहवी, व्योमापगा, आकाशगङ्गा, त्रिमार्गा ओर मंदाकिनी भी कहते है। गण-दो या तीन चिरदीक्षित साधुओं के समूह को गण कहते है। गणघर-जो तीर्थकर के पादमूल में समस्त ऋद्धिया प्राप्त करके भगवान की दिव्यध्वनि को धारण करने में समर्थ है और लोक-कल्याण के लिए उस वाणी का सार द्वादशाग श्रुत के रूप मे जगत को प्रदान करते है, ऐसे महामुनीश्वर 'गणधर' कहलाते है। प्राप्त ऋद्धियो के वल से गणधर आहार, नीहार, निद्रा, आलस्य आदि से सर्वथा मुक्त हे अत चोवीस घटे निरतर भगवान की वाणी हृदयगम करने मे सलग्न रहते है। ये तद्भव मोक्षगामी होते है। गति-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव मनुष्य, तिर्यच, देव व नारकीपने को प्राप्त करता हे उसे गति नामकर्म कहते है। मनुष्यगति, तिर्यचगति, देवगति व नरकगति-ये चार गतिया है।। गन्ध-नामकर्म-जिस नामकर्म के उदय से जीव के शरीर मे अपनी 86 / जेनदर्शन पारिभाषिक को
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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