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________________ के जिस परिणाम या भाव से सूक्ष्म पुद्गल परमाणु कर्म रूप होकर आत्मा मे आते है उस परिणाम या भाव को भावास्रव कहते हे और सूक्ष्म कर्म रूप पुद्गलो का आना द्रव्यास्रव कहलाता है। साम्परायिक आस्रव और ईर्यापथ आस्रव ऐसे दो भेद भी आस्रव के है। आस्रव-अनुप्रेक्षा-आत्मा मे निरतर होने वाला कर्मो का आस्रव ससार को बढाने वाला और दुख रूप हे तथा इन्द्रिय, कषाय और असयम रूप होने से अहितकर है। इस प्रकार आस्रव के दोषो का बार-बार चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। आहार-दान-श्रद्धा-भक्तिपूर्वक प्रासुक अन्न आदि आहार सुपात्र को देना आहार-दान कहलाता है। आहारक-जो जीव औदारिक आदि तीन शरीरो मे से उदय को प्राप्त किसी एक शरीर के योग्य पुद्गलो का ग्रहण करता हे वह आहारक कहलाता है। आहारक-शरीर-छठवे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त सयत साधु सूक्ष्म तत्त्व के विषय मे जिज्ञासा होने पर जिस शरीर के द्वारा केवली भगवान के पास जाकर जिज्ञासा का समाधान करते हैं उसे आहारक-शरीर कहते है। आहारक-समुद्घात-सूक्ष्म तत्त्व के विषय मे जिसे कुछ जिज्ञासा उत्पन्न हुई है उन परम ऋषि के मस्तक मे से मूल शरीर से सपर्क बनाए रखकर एक हाथ ऊचा सफेद रंग का सर्वाग सुदर पुतला निकलकर अतर्मुहूर्त मे जहा कहीं भी केवली भगवान को देखता है वहा जाकर उनके दर्शन मात्र से ऋपि की जिज्ञासा का समाधान पाकर 41/ जेनटर्शन पारिभापिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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