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आनुपूर्वी नामकर्म - जिस कर्म के उदय से एक गति से दूसरी गति
जाते हुए जीव के पूर्व शरीर का आकार नष्ट नहीं होता है वह आनुपूर्वी नामकर्म हे । आनुपूर्वी नामकर्म के उदय से ही जीव का अपनी इच्छित गति मे गमन होता है। यह चार प्रकार का हे - नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी ओर देवगत्यानुपूर्वी । आप्त- वीतराग, सर्वज्ञ ओर हितोपदेशी अर्हन्त-भगवान आप्त कहलाते हे ।
आवाधा-कर्म का बन्ध होने के पश्चात् वह तुरत ही उदय मे नहीं आता बल्कि कुछ समय बाद परिपक्व होकर उदय मे आता है । अत जीव के साथ बधे हुए कर्म जितने काल तक उदय या उदीरणा के योग्य नहीं होते उस काल को अबाधा कहते हैं। आयु कर्म को छोडकर शेष सात कर्मों की एक कोडाकोडा सागर की स्थिति होने पर आवाधा वर्ष की होती है ।
आभ्यन्तर- तप - जिससे मन का नियमन हो वह आभ्यन्तर -तप है। प्रायश्चित्त, विनय, वेयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग- ये छह आभ्यन्तर-तप है ।
आमर्ष - औषधि - ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु के स्पर्श मात्र से जीव निरोगी हो जाते है उसे आमर्ष - ओषधि - ऋद्धि कहते है । आम्नाय - उच्चारण की शुद्धिपूर्वक पाठ को पुन पुन दुहराना आम्नाय नाम का स्वाध्याय हे ।
आयतन-सम्यग्दर्शन आदि गुणो के आधार या आश्रय को आयतन कहते हे | सच्चे देव, शास्त्र, गुरु ओर इन तीनो के उपासक - ऐसे
40 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश