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अर्हन्त--जो वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी है वे अर्हन्त परमेष्ठी कहलाते है। अर्हन्त परमेष्ठी तीन लोक मे पूज्य होते हैं। अर्हद्-भक्ति-अर्हन्त भगवान के प्रति जो गुणानुराग रूप भक्ति होती है वह अर्हद्-भक्ति कहलाती है। अथवा अर्हन्त भगवान के द्वारा कहे गए धर्म के अनुरूप आचरण करना अर्हद्-भक्ति कहलाती है। यह सोलह कारण भावना मे एक भावना है। अलाभ-परीषह-जय-जो साधु कई दिनो तक आहार प्राप्त न होने पर अलाभ की स्थिति मे भी समता-पूर्वक ध्यान-अध्ययन मे लीन रहते हे और अलाभ की स्थिति को कर्मनिर्जरा का कारण मानकर सतोष धारण करते है उनके यह अलाभ-परीषह-जय है। अलोक-लोकाकाश के बाहर सब ओर जो अनन्त आकाश है उसे अलोक या अलोकाकाश कहते हैं। अलोकाकाश में एकमात्र आकाश द्रव्य है शेष पाच द्रव्य नहीं है। अल्पवहुत्व-परस्पर हीनाधिकता को अल्पबहुत्व कहते है।जैसे-'यह इसकी अपेक्षा अल्प है' और 'यह अधिक है' इत्यादि। इसके द्वारा क्षेत्रादि की अपेक्षा भेद को प्राप्त हुए जीव आदि की परस्पर संख्या विशेष को जाना जाता है।
अवगाद सम्यग्दर्शन-द्वादशाग के साथ अन-बाह्य का अध्ययन करके जो दृढ सम्यग्दर्शन होता है उसे अवगाढ सम्यग्दर्शन कहते है। अवगाहन-सभी द्रव्यो को अवकाश (स्थान) देना, यह आकाश का अवगाहन गुण है।
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 27