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मंघों का विखरना देखकर इन्हे वैराग्य हो गया और इन्होने जिनदीक्षा ले ली । अठारह वर्ष की मौन तपस्या के उपरात इन्हे केवलज्ञान हुआ। इनकं समवसरण में एक सो तीन गणधर, तीन लाख मुनि, तीन लाख तीस हजार छ सो आर्यिकाए, तीन लाख श्रावक और पांच लाख श्राविकाए थीं। इन्होंने सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया। अभिन्नदशपूर्वी-ग्यारह अङ्गी का अध्ययन पूर्ण होने के उपरात विद्यानुवाद नामक दसवे पूर्व को पढते समय महाविद्याओ के पाच मो और लघु-विद्याओ के सात सो देवता आकर सेवक की तरह उपस्थित हो जाते हैं। उस समय किसी भी प्रलोभन मे न पडकर जो साधु दशवे पूर्व का अध्ययन पूर्ण कर लेते है वे अमिन्नदशपूर्वी कहलाते हैं। अभिषेक-जिन-प्रतिमा के स्नपन या प्रक्षालन को अभिषेक कहते है। इसका मूल उद्देश्य अपने आत्म-परिणामो की निर्मलता है। अभिदत-यदि एक पंक्ति में स्थित तीन या सात घरो को छोडकर अन्य किसी पर से आये हुए अन्नादि को साधु ग्रहण कर लेता है तो यह अभिहत दोप है। अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग-अभीक्ष्ण का अर्थ सदा या निरतर है। जीवादि तत्वविषयक सम्यग्ज्ञान के अभ्यास में निरतर लगे रहना अभीक्ष्ण-नानोपयोग है । यह सोलह-कारण भावना मेसे एक भावना है। अभोज्य-गरप्रवेशन-वदि आहार के लिए जाते हुए साधु का चाण्डाल आदि अपवित्र जनो के घर में प्रवेश हो जाता है तो यह अभोज्य गरपवान नामक अन्तराय है।
जनदर्शन पारिभाषिक कोश / 28