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तो जीव की शेष आयु का पुन दो तिहाई भाग बीत जाने पर दूस अवसर आता है। इस प्रकार भुज्यमान आयु की समाप्ति होने तक नवीन आयु चधने के आठ अवसर होते हैं, यही अपकर्ष कहना है। अपकर्षण- कर्मो की स्थिति ओर अनुभाग का घट जाना अपकर्षग कहलाता है ।
अपध्यान- व्यर्थ ही दूसरे जीवो के प्रति वाधने-मारने रूप खोटे विचार मन में लाना अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड है ।
अपरिग्रह - अतरग मे ममत्व-भाव का और बाह्य में धन-पैसा, स्त्री, पुत्र आदि समस्त परिग्रह का त्याग कर देना अपरिग्रह है ।
अपरिणत - तिल, चावल आदि के धोने का जल, गरम होकर श हुआ जल या हरड, लोग आदि चूर्ण से परिणत नही हुआ जन माधु को देना अपरिणत दोष है ।
अपर्याप्तक- देखिए पर्याप्तक
अपर्याप्तनाम - जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियां को पूर्ण नहीं कर पाते वह अपर्याप्त नामकर्म है ।
अपवाद - मार्ग - यद्यपि मोक्षमार्ग मे समता-भाव की साधना ही पमुख है परन्तु शरीर की स्थिति वनाए रखने के लिए साधु को आहार, विहार आदि भी आवश्यक है । अत समता-भाव की साधना में कठोर आचरण का पालन करना उत्सर्ग-मार्ग कहलाता है । उत्सर्ग-मार्ग में निवृत्ति प्रमुख हे तथा विशेष परिस्थिति में शरीर की रक्षा के लिए मृदु आचरण करना अपवाद मार्ग है। यह अपवाद-मार्ग शुद्धोपयोग
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 19