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________________ सम्यक् चारित्र - ससार की कारणभूत बाह्य और अतरग क्रियाओ से निवृत्त होना सम्यक् चारित्र है। बाह्य और अभ्यतर निवृत्ति की अपेक्षा अथवा निश्चय व व्यवहार की अपेक्षा चारित्र दो प्रकार का है। कर्मो के उपशम आदि की अपेक्षा औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से चारित्र तीन प्रकार का है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार - विशुद्धि, सूक्ष्म-साम्पराय ओर यथाख्यात चारित्र के भेद से चारित्र पाच प्रकार का है । सम्यक्त्वाचरण चारित्र और स्वरूपाचरणचारित्र ऐसे दो भेद भी चारित्र के किए गए है । सम्यक्त्व - क्रिया- चैत्य, गुरु और शास्त्र की पूजा आदि रूप सम्यक्त्व को बढाने वाली सम्यक्त्व - क्रिया है । - सम्यक्त्वाचरण - चारित्र - जिनेन्द्र भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा होने पर जो सहज सदाचार रूप क्रिया होती हे उसे सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहते हे । सम्यग् - मिथ्यात्व - देखिए मिश्रगुणस्थान । सम्यग् - एकान्त-अनेक धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म का प्रधानता से कथन करना और शेष धर्मो का निषेध नहीं करना सम्यग् - एकान्त है । सम्यग्ज्ञान- सम्यग्दर्शन के साथ होने वाले यथार्थ या समीचीन ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान ओर केवलज्ञान- ये सम्यग्ज्ञान के पाच भेद है । सम्यग्दर्शन - सच्चे देव - शास्त्र - गुरु के प्रति श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन है । अथवा जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गए सात तत्त्वो के यथार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते है । अथवा आत्मरुचि होना सम्यग्दर्शन जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 243
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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