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काय की प्रवृत्ति को भाव-लेश्या कहते है। लेह्य-रवडी, मलाई आदि जो आहार चाटकर खाया जाता हे उसे लेह्य कहते है। लोक-1 जिसमे जीव आदि छह द्रव्य पाये जाते है उसे लोक अथवा लोकाकाश कहते हे। उससे वाहर सर्वत्र अनन्त अलोकाकाश है। लोकविदुसार-जिसमे आठ व्यवहार, चार वीज-राशि, परिकर्म आदि गणित और समस्त श्रुत सम्पदा का वर्णन हे वह लोकविदुसार नामक चौदहवा पूर्व है। लोकमूढ़ता-अधविश्वास से प्रेरित होकर प्रयोजन का विचार किए विना लोकिक कार्य करना लोकमूढता है। जैसे-नदी या समुद्र आदि में स्नान करना, वालू व पत्थरो का ढेर लगाना, पर्वत से गिरना तथा अग्नि मे जलना आदि कार्यो को धर्म समझकर करना लोकमूढता है। लोकानुप्रेक्षा-'अनन्त अलोकाकाश के मध्य मे पुरुषाकार लोक स्थित है। जीव आदि छह द्रव्यो से यह लोक बना है, उसे न किसी ने बनाया हे, न कोई इसे धारण किए हे ओर न ही कोई इसे मिटाने वाला है, यह लोक अनादि-अनन्त है'-इस प्रकार लोक के स्वरूप का वार-वार चिन्तवन करना लोकानुप्रेक्षा है। लोभ-धन पेसा आदि की तीव्र लालसा या गृद्धि होना लोभ हे। अथवा पर पदार्थो मे 'यह मेरा हे'-इस प्रकार की राग रूप बुद्धि होना लोभ है। लोभ चार प्रकार का है-जीवन-लोभ, आरोग्य-लोभ, इन्द्रिय-लोभ
और उपभोग-लोभ। लोभ-दोष-यदि साधु लोभ प्रगट करके आहार प्राप्त करे तो यह लोभ 210 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश