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________________ लक्षण-जिसके द्वारा परस्पर सम्मिलित वस्तुओ मे से किसी वस्तु विशेष का प्रथक्करण हो वह उसका लक्षण कहलाता है। वह गुण या चिन्ह जिसके द्वारा वस्तु की अलग पहचान होती है, लक्षण कहलाता है। लक्षण, धर्म, गुण, स्वभाव व प्रकृति-ये सभी एकार्थवाची हैं। लक्षण के दो भेद है-आत्मभूत लक्षण और अनात्मभूत लक्षण। लक्षण-निमित्तज्ञान-हाथ, पैर व माथे की रेखाए और अन्य चिह्न देखकर दुख-सुख आदि जान लेना लक्षण-निमित्त-ज्ञान हैं। लधिमा-ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु अपने शरीर को वायु से भी हल्का बनाने में समर्थ होते है वह लधिमा-ऋद्धि है। लब्धि-1 तप विशेष से प्राप्त होने वाली ऋद्धि को लब्धि कहते है। 2 जिसके ससर्ग से आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना करने के लिए तत्पर होता हे ऐसे ज्ञानावरण के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं। 3 घातिया कर्म के क्षय से अर्हन्त भगवान के क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान और चारित्र-ये नव केवल लब्धिया होती हैं। 4 उपशम सम्यक्त्व सवधी लब्धिया पाच है-क्षयोपशम-लब्धि, विशुद्धि-लब्धि, देशना-लब्धि, प्रायोग्य-लब्धि और करण-लब्धि । प्रथम चार लब्धिया भव्य-अभव्य दोनो के होती हे किन्तु करण-लब्धि भव्य-जीव को ही होती है। लब्थ्यपर्याप्तक-अपर्याप्तक-नामकर्म के उदय से जो जीव अपने योग्य 208 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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