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रति-जिस कर्म के उदय से जीव इन्द्रिय-विषयो मे आसक्त होकर रमता है उसे रति कहते है। अथवा मनोहर वस्तुओ के प्रति अत्यत प्रीति होना रति है। रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र-इन तीन गुणो को रत्नत्रय कहते है।
रसना-जिसके द्वारा स्वाद लिया जाता है अथवा जो स्वाद को ग्रहण करती है वह रसना या जिहा इन्द्रिय है।
रस-नामकर्म-1 जिस कर्म के उदय से जीवो के शरीर मे खट्टा, मीठा आदि रस उत्पन्न होता है उसे रस-नामकर्म कहते है। तिक्त, मधुर, कटुक, कसायला और खट्टा-ये पाच रस है। 2 घी, दूध, दही-ये गोरस हैं। गुड, शक्कर आदि इक्षुरस है। द्राक्षा, आम आदि फल-रस है। तेल, माड आदि को धान्य-रस माना गया है। रस-परित्याग-भोजन मे दूध, दही, घी, तेल, गुड और नमक इन छह रसो का या इनमे से किसी एक-दो रसो का त्याग करना रस-परित्याग नाम का तप है।
राग-इष्ट पदार्थों में प्रीति या हर्ष रूप परिणाम होना राग है। राग दो प्रकार का है-प्रशस्तराग और अप्रशस्तराग। राजर्षि-जो साधु विक्रिया-ऋद्धि और अक्षीण-ऋद्धि के धारक होते है वे राजर्षि कहलाते है।
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 205