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होने के कारण ये प्रमत्त-सयत ह। प्रमाण-सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते है। प्रत्यक्ष ओर परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है। स्वार्थ और परार्थ-ये दो भेद भी प्रमाण के है। ज्ञानात्मक प्रमाण को स्वार्थ प्रमाण कहते हे और वचनात्मक प्रमाण को परार्थ प्रमाण कहा गया है। श्रुतज्ञान को छोडकर शेष चारो ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हे तथा श्रुतज्ञान स्वाथ व परार्थ दोनो रूप है।
प्रमाण-दोप-साधु यदि मात्रा से अधिक आहार ग्रहण करे तो यह प्रमाण-दोष कहलाता है । जितने आहार से धेर्य, वल, सयम और योग ठीक वना रहे उतना ही आहार का प्रमाण है।
प्रमाद-1 अच्छे कार्यो के करने म आदर-भाव का न हाना प्रमाद कहलाता है। 2 सज्वलन कपाय के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है। प्रमाद के पद्रह भेद हे-चार विकथा, पाच इन्द्रिय, चार कषाय, निद्रा ओर प्रणय।
प्रमाद-चर्या-विना प्रयोजन के पृथिवी खांदना, जल फैलाना, अग्नि जलाना-बुझाना, वनस्पति को छेदना, गमन करना या कराना प्रमाद-चर्या नाम का अनर्थदण्ड है।
प्रमादवर्धक-जिसके सेवन से उन्माद या नशा आता हे ऐसे मदिरा आदि मादक पदार्थ प्रमादवर्धक अभक्ष्य कहलाते है।
प्रमेयत्व-जिसके द्वारा द्रव्य किसी न किसी ज्ञान का विषय बनता हे अर्थात् जानन में आता है वह प्रमेयत्व-गुण है। 168 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश