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आलम्वन लेकर अर्थ, व्यजन और योगो मे परिवर्तन करते हुए श्रुतज्ञान के माध्यम से ध्यान करते है। यह पहला शुक्ल-ध्यान है। पृथिवीकाय-पृथिवीकायिक जीव के द्वारा छोडे गए शरीर को पृथिवीकाय कहते है। पृथिवीकायिक-पृथिवी ही जिसका शरीर है उसे पृथिवीकायिक-जीव कहते है। पृथिवीजीव-जो जीव पृथिवीकायिक मे उत्पन्न होने के लिए विग्रहगति मे जा रहा है उसे पृथिवी-जीव कहते है। पेय-पीने योग्य दूध, पानी आदि पतले पदार्थ पेय कहलाते है। पोतज-जिस जीव के शरीर के सब अवयव विना आवरण के पूरे हुए हे ओर जो गर्भ से बाहर निकलते ही चलने-फिरने में समर्थ होता हे उसे पोत कहते है। पोत-रूप से जन्म लेना पोतज कहलाता है। हरिण आदि जीव पोतज होते है। प्रकृति-वध-प्रकृति का अर्थ स्वभाव होता है। जैसे गुड मे मधुरता का होना उसकी प्रकृति है। इसी प्रकार आत्मा के द्वारा ग्रहण किए गए पुद्गल स्कध मे ज्ञान आदि को आवरित करने रूप कर्म प्रकृति का होना ही प्रकृति वध है। प्रकृति वध दो प्रकार का है-मूल प्रकृति ओर उत्तर प्रकृति । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अतराय ये आठ मूल कर्म प्रकृतिया है। इन मूल प्रकृतियो के भेद-प्रभेद रूप एक सौ अडतालीस उत्तर प्रकृतिया है। एक बार खाए गए अन्न का जिस प्रकार रस, रुधिर आदि रूप
जेनदर्शन पारिभाषिक कोश / 161