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आदि पर्याप्तियो की पूर्णता होती है उसे पर्याप्त नामकर्म कहते है । पर्याय- द्रव्य की अवस्था विशेष को पर्याय कहते हैं। पर्याय एक वाद दूसरी इस प्रकार क्रमश. होती है । अतः पर्याय को क्रभाव या क्रमवर्ती कहा जाता है। पर्याय दो प्रकार की होती है- अर्थ - पयाय ओर व्यजन-पर्याय । ये स्वभाव और विभाव रूप होती है।
पर्यायार्थिक-नय- जो द्रव्य को गौण करके मुख्य रूप से पर्याय को अनुभव करावे वह पर्यायार्थिक- नय है। जैसे- 'कुण्डल लाओ' -- यह कहने पर व्यक्ति कडा आदि नहीं लाता क्योंकि कुण्डल रूप पर्याय ही उसे इष्ट है । सारा लोक व्यवहार इसी नय की दृष्टि से चलता है । पर्व-धर्म-सचय की कारणभूत अष्टमी आदि विशेष तिथियों को पर्व कहते हैं ।
पश्चात्स्तुति-यदि साधु आहार ग्रहण करने के बाद दाता की प्रशसा करता है तो यह पश्चात्स्तुति नामक दोष है। याक्षिक-श्रावक-मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव की वृद्धि करना तथा हिसा का त्याग करना यही जैनो का पक्ष है । इसलिए जो जिनेन्द्र भगवान के प्रति श्रद्धा रखते हुए हिसा आदि पाच पापो का त्याग करने की प्रतिज्ञा लेता है उसे पाक्षिक-श्रावक कहते हैं। पाणिजन्तुवध-- आहार ग्रहण करते समय यदि साघु को अजुलि में चींटी आदि जीव मर जाता है तो यह पाणिजन्तुवध नाम का अतराय है । पाणिपिण्ड - पतन - आहार करते समय यदि साधु की अंजलि से ग्रास आदि गिर जाता है तो यह पाणिपिण्ड पतन नाम का अतराय है ।
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश 158
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