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परीषह-जय-भूख-प्यास आदि वेदना के होने पर कर्मो की निर्जरा के लिए उसे समतापूर्वक सहन कर लेना परीषह-जय कहलाता है। क्षुधा, तृषा,शीत, उष्ण, दशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध,याचना, अलाभ, रोग, तृण-स्पर्श,मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन-ऐसे बाईस परीषह होते हैं। परोक्ष-ज्ञान-जो इन्द्रिय, मन एव प्रकाश आदि की सहायता से होता है उसे परोक्ष-ज्ञान कहा जाता है। वास्तव में यह इन्द्रिय-ज्ञान है। लोक-व्यवहार मे यह प्रत्यक्ष की भांति होने से साव्यवहारिक-प्रत्यक्ष भी कहलाता है। मति व श्रुत-ये दोनो परोक्ष-ज्ञान है। पर्याप्तक-जिस प्रकार गृह वस्त्रादि अचेतन पदार्थ पूर्ण और अपूर्ण दोनो प्रकार के होते है उसी प्रकार जीव भी पूर्ण व अपूर्ण दोनो प्रकार के होते हैं। जो जीव अपने योग्य पर्याप्तिया पूर्ण कर लेते है वे पर्याप्तक कहलाते है जो पर्याप्तिया पूर्ण नहीं कर पाते वे अपर्याप्तक कहलाते
है।
पर्याप्ति-आहार, शरीर आदि की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते है।जन्म स्थान मे प्रवेश करते ही जीव वहा अपने शरीर के योग्य कुछ पुद्गल परमाणुओ रूप आहार ग्रहण करता है फिर अपने योग्य शरीर, इन्द्रिय, श्वास, भाषा और मन का निर्माण करता है। यही छह पर्याप्तिया होती है। जीव अपने योग्य पर्याप्तियो का प्रारभ एक साथ करता हे लेकिन पूर्णता क्रमश होती है। सभी पर्याप्ति पूर्ण होने मे एक अन्तर्मुहूर्त लगता है। पर्याप्त-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीवो के आहार,शरीर, इन्द्रिय 152 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश