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ऐसे निस्पृही सयमी साधु को अतिथि कहते है। अतिथि-संविभाग-अतिथि के लिए श्रद्धा-भक्तिपूर्वक आहार व औषध आदि देना अतिथि-संविभाग नाम का शिक्षाव्रत है। अतिशय-तीर्थकर के जन्म आदि के समय जो अलौकिक या असाधारण सुखद घटनाए होती है उन्हे अतिशय कहते है। अतिशय क्षेत्र-जहा तीर्थकरो के पचकल्याणक हुए है अथवा जिस स्थान पर किसी मंदिर या मूर्ति मे कोई असाधारण विशेषता है उसे अतिशय क्षेत्र कहते है जैसे-अतरिक्ष पार्श्वनाथ, श्रीमहावीरजी, गोम्मटेश्वर-बाहुवली आदि। अत्र-अवतर-अवतर-यहा आये, पधारे । यह पूजा के समय किया जाने वाला आह्वान है।
अत्राणभय-आत्मरक्षा में समर्थ न होने पर सुरक्षा के अभाव मे जो भय उत्पन्न होता है वह अत्राणभय कहलाता है।
अदत्त-ग्रहण-श्रावक के द्वारा विना दिया आहारादि यदि साधु ग्रहण कर ले तो यह अदत्त-ग्रहण नाम का अन्तराय है। अदन्तपोवन-अङ्गुली, नख, दातौन आदि से दातो को घिसने का त्याग करना अदन्तीवन व्रत कहलाता है। यह साधु का एक मूलगुण है। अदर्शन-परीषह-जय-दीर्घकाल तक आत्म-साधना करने के उपरात भी ऋद्धि सिद्धि आदि प्रगट न होने पर परिणामो में समता रखना और मोक्षमार्ग के प्रति अवज्ञा का भाव नहीं लाना अदर्शन-परीषह-जय है।
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 7