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श्राविकाए थीं। इन्होने सम्मेद शिखर समान प्राप्त किया।
नय-वस्तु के अनेक धर्मो में से किसी एक धर्म को सापेक्ष रूप से स्थन करने की पद्धति को नय कहते है । अथवा ज्ञाता और वक्ता के अभिप्राय को नय कहते है । वास्तव में, अनन्त धर्मात्मक होने के कारण वस्तु अत्यत जटिल है। उसे जाना जा सकता है परतु आसानी से कहा नही जा सकता। उसे कहने के लिए वस्तु का विश्लेषण करके एक-एक धर्म को क्रमश निरूपित करने के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है ऐसी स्थिति में वक्ता वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य करके और शेष धर्मो को गौण करके सापेक्ष रूप से कथन करता है और इस तरह वस्तु को पूर्णत जानना आसान हो जाता हे। यही नय का कार्य है। नय के दो भेद हे - द्रव्यार्थिक नय ओर पर्यायार्थिक नय अथवा निश्चय नय ओर व्यवहार नय । नेगम, सग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ ओर एवभूत-ये भी सात नय हे ।
नरक - जो जीवों को शीत, उष्ण आदि वेदनाओं से निरतर आकुलित करते रहते है वह नरक कहलाते है। अथवा पापी जीवो को अत्यत दुख प्राप्त कराने वाले नरक है। अथवा जिस स्थान मे जीव रमते नही है अर्थात् परस्पर प्रेम-भाव को प्राप्त नहीं होते वह नरक कहलाते 71