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दीक्षा कल्याणक-नीर्थकर की दीक्षा के अवसर पर होने वाला उत्सव दीक्षा या तप कल्याणक कहलाता है। तीर्थकरों को वैराग्य उत्पन्न होत ही नौकान्तिक दव आकर उनके वैराग्य की प्रशसा करते है। इन्द्र उनका अभिषेक करक उन्हे वस्त्राभूषण से अलकृत करता है । कुवेर द्वारा निर्मित पालकी में भगवान स्वय बैठ जाते है । इस पालकी की पहले तो मनुष्य कधों पर लेकर कुछ दूर पृथिवी पर चलते हे फिर देव उसे आकाश मार्ग से ले जाते है। तपोवन मे पहुचकर समस्त वस्त्राभूषणों को त्यागकर तीर्थकर केशलुचन करके दिगम्बर मुद्रा धारण कर लेते है । इन्द्र केशी को एक मणिमय पिटारे मे रखकर क्षीरसागर में विसर्जित करता है । 'नम सिद्धेभ्य' कहकर तीर्थकर स्वय दीक्षा ले लेते है, वे स्वयं जगद्गुरु हे । अपना नियम पूरा होने पर वे आहार चर्या के लिए नगर में जाते हे ओर विधिपूर्वक आहार लेते हे, आहार देने वाले दाता के घर में रत्नवृष्टि आदि पच-आश्चर्य होते हैं ।
दीप्त-तप ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से निरतर उपवास करने पर भी साधु के शरीर की दीप्ति वढती ही जाती है वह दीप्त-तप ऋद्धि कहलाती है।
दुर्भग-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव रूपादि गुणो से युक्त होकर भी अप्रीतिकर लगता है उसे दुर्भग- नामकर्म कहते है ।
दु.ख - पीडा रूप आत्मा का परिणाम ही दुख है । दुख चार प्रकार का है - भूख, प्यास आदि से उत्पन्न स्वाभाविक दुख, सर्दी गर्मी आदि से उत्पन्न नैमित्तिक दुख, रोगादि से उत्पन्न शारीरिक दुख तथा वियोग आदि से उत्पन्न मानसिक दुख ।
118 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश