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तत्त्व-जिस वस्तु का जो भाव है वही तत्त्व है। आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप मे अवस्थित है उसका उस रूप होना, यही तत्त्व शब्द का अर्थ है। तत्त्व सात है-जीव, अजीव, आस्रव, बध, सवर, निर्जरा और मोक्ष। तत्त्ववती-धारणा-वारुणी धारणा के पश्चात् वह योगी सप्त धातु से रहित पूर्ण चद्र के समान निर्मल अपने आत्मा का ध्यान करता है, यह अंतिम तत्त्ववती-धारणा है। तदाकार-स्थापना-धातु या पाषाण आदि मे तीर्थंकर आदि की वास्तविक आकार सहित मूर्ति बनाकर स्थापना करना तदाकार स्थापना कहलाती है। तदुभय-1 दोपो को दूर करने के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण दोनो एक साथ करना तदुभय नाम का प्रायश्चित हे। 2 अर्थ को ठीक-ठीक समझते हुए शुद्ध पाठ आदि पढना तदुभय नाम का ज्ञानाचार है। तन्तुवारण ऋद्धि-जिस अद्धि के प्रभाव से साधु मकडी के ततु के ऊपर चरण रखते हुए उसे विना वाधा पहुचाये गमन करने में समर्थ होते हे वह तन्तुचारण-ऋद्धि कहलाती है। तप-इच्छाओ का निरोध करना तप है। तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है। तप करने का उद्देश्य भी यही है। तप दो प्रकार का है-वाह्य तप ओर आभ्यन्तर तप। 110 / जेनदशन पारिभापिक कोश