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________________ स्थान में भी अनगिनत जीव सुखपूर्वक आसानी से बैठ जाते है वह अभीण-महालय-ऋद्धि कहलाती है। अगाढ-जिस प्रकार वृद्ध पुरुप की लाठी हाथ में रहते हुए भी कापती रहती है उसी प्रकार क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव सच्चे देव शास्त्र गुरु की श्रद्धा में स्थित रहते हुए भी सकम्प होता है और किसी विशेप जिनालय या जिनविच के प्रति 'यह मेरा है' या 'यह दूसरे का है-ऐसा विचार करता है यह भयोपशम सम्यग्दर्शन का अगाढ टोप कहलाता है। अगुप्ति-भय-जिसमें किसी का प्रवेश आसानी से न हो सके ऐसे स्थान में जीव निर्भय होकर रहता है लेकिन जो स्थान खुला हो वहा रहने स जीव को जी भय उत्पन्न होता है उसे अगुप्ति-भय कहते है। अगुरुलघु-गुण-जिम गुण के निमित्त से द्रव्य का द्रव्यपना सदा वना रहे अर्थात् द्रव्य का कोई गुण न तो अन्य गुण रूप हो सके और न कोड द्रव्य अन्य द्रव्य रूप हो सक तथा जिसके निमित्त से प्रत्येक द्रव्य मे पटगुणी हानि-वृद्धि होती रहे उसे अगुरुलघु-गुण कहते हैं। अगुरुलघु गुण का यह सूक्ष्म परिणमन वचन के अगोचर हे ओर मात्र आगम प्रमाण से जानने योग्य है। अगुरुलघु-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव न तो लोहपिण्ड के समान भारी होकर नीचे गिरता है ओर न रुई के समान हल्का हाकर ऊपर उडता है वह अगुरुलघु-नामकर्म कहलाता है। अगृहीत-मिथ्यात्व-जो परोपदेश के विना मात्र मिथ्यात्व कर्म के उदय से सच्चे टेव-शास्त्र-गुरु के प्रति अश्रद्धान रूप भाव होता है उसे 2 । जनशन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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