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________________ १०. मति श्रुति अवधि ज्ञान भरपूर, महासुभग मूरति महासुर । मल मूत्रादि रहित शरीर, धर्मनाथ पूजूं घरोर ॥ १५ ॥ जो मन में बैराग विचार, मारह भवन भाई सार | संगोगे लोकांतिक माय, शांतभये धर्णन सरनाय ॥ १६॥ आपा परको कियो विचार, आतम रूप बखो जिनसार । तन धन यौवन थिर नहीं जान, कुंब नाथ पायो विज्ञान | १७ ॥ तपकर कर्म जलाये सभी, केवल ज्ञान उपायो तभी । 'समवशरण सुररचना करी, अर्हनाथ मुखवारणी खिरी ॥१- १ सात तत्व उपदेश जो करो, स्याद्वाद कर संशय हरो । मिथ्यामत खंडेइकवार, मल्लनाथ जिनमत विस्तार || १६ | दो विध धर्मको जिनराज, हर्षलहो सुन सकल समाज । गाय सिंह बैठे एक ठौर, भुमि सुव्रत बंद कर जोड़ ||२०| तारण तरन जगतमें सही, कुमत हटाय सुमति मति दई । जगवंदू तुम दीनदयाल, नमूं नमी श्री जिन तिहुं काल ||२१ हरता करता आपही जीव, स्वयं सिद्ध यह लोक सदीबा ऐसा बतलायो जिन राज, वंदू नेम नाथ महाराज ॥ २२ ॥ नाग नागनी जलत उभार, अंतसमय दीनों नवकार | सुर पदवीधारी छिन माय. चंदू पार्श्वनाथ चितलाय ॥ २३॥ कातक सुदीचौदश की रात, मावसकी जानों परभात । चित्रानक्षत्र लियो निर्वाण, वंदू महावीर भगवान ॥ २४ ॥ 0
SR No.010042
Book TitleJain Bhajan Ratnavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyamatsinh Jaini
PublisherNyamatsinh Jaini
Publication Year1918
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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