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हय ना। कर्मवन्धन हइते मुक्तीच्छ : साधक अहिंसा संयम एवं तपस्यार प्रभावे आत्मार मालिन्य दूर करिया आत्मध्याने रत थाकिवेन इहाइ जैनतीर्थकरगणेर उपदेश । श्रीमद्भगवद्गीताय ऐरुप उक्त हइयाछे यथा :
यस्त्वात्मरति रेवस्या दात्म तृस्च मानवः ।
आत्मन्येवच सन्तुष्ट स्तस्य कार्य नविद्यते ।।" . ये मानव आत्मविपये प्रीत, आत्मपरितृप्त एवं आत्मातेइ सन्तुष्ट हन, ताहार कोन कत्र्तव्य कार्य नाइ (गीता इय अध्याय १७ श्लोक ) । उहाद्वारा प्रमाणित हय ये आत्मदर्शन मुक्तिर सर्वोत्कृष्ट उपाय । जनसाधुगण कर्मवन्धन हइते मुक्त हइया सांसारिक समस्त भोगवासना त्याग करिते- सर्वदाइ यत्नशील। गीतार चतुर्थाध्ययनेर २० ओ २१ श्लोक पडिलेइ जैनधर्मेर प्रकृतस्वरुप उपलब्धि हइवे ।
"त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोतिसः ।। २७ निराशी यंतचितात्मा स्क्तसर्च परिग्रहः ।
शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विपम् ॥ २१ साघुगण कर्मओ तत्फले आसक्ति परित्याग करेन; ताहारा नित्यतृप्त अर्थात् आत्मानुभूतिते परितृप्त सुतरां अप्राप्त-विपयलाभे अथवा प्राप्तविपयेर परिरक्षणे प्रयत्नरहित हइया ध्यानादि कर्त्तव्य कर्मे प्रवृत्त हइलेओ ताहारा किछुइ करेन ना; ताहादेर कृतकर्म काभाव प्राप्त हय। २० श्लोक । यिनि निष्काम हइया अन्तःकरण ओ देहके संयत करिया सर्वप्रकार परिग्रह (भोग्यवस्तु) त्याग करियाछेन, तिनि केवल शरीर रक्षार निमित्त कर्तृत्वाभिनिवेशरहितभावे कर्मानुष्ठान