SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दश-वैकालिक-सूत्रं । चतुर्थ अध्ययन । अन्योपैकरणे यदि उहारा वां थाँके। यदि उहां साधुगण निज नेत्रे देखे ॥ निरखियो उहादेरें एकंत्र करिवे। निरापद स्थाने साधु लइया याइवे ।। सुविधाजनकस्थाने यतने राखिवे । असह्य संघर्ण दुःख कभु नाहि दिवें ॥६ अध्ययन चतुर्थेते आछे बहु कथा । जीवेरै प्रकार भेद कविताये गथी। जीवाजीब-स्वरूपादि उहाते विचारि । उपदेश धर्मफलं चारित्रं प्रचारि।। दियोछेने ग्रन्थंकर्ती साधुरे चेतनी। उल्लेखि विशेषरूपे जीवेर वेदना । असंयत चंले जीव सावधान नयं। पापेते तत्पर संदा अति दुःखमय ।। त्रसं-स्थावरादि जीवे हिंसे संक्षण | चंद्ध हय पापकर्मे जीव अगणन।। परिणामे दुःख पाय अशेष प्रकार । नरकेर. पथे याय विस्मरि विचार ॥१ दौड़ाइया अयतने नर नाशे शत। स-स्थावरादि जीव पापकार्ये रत।। पापकायें बंद्ध हय जीव करि भ्रम । परिणामे अतिदुःख.पाय नराधम २
SR No.010036
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnibhushan Bhattacharya
PublisherParshwanath Jain Library Jaipur
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy