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दश-वैकालिक-सूत्र ।
तृतीय अध्ययन ।
साधुरा करिले त्याग कथित लवण | अनाचीर्ण दोषमुक्त हवे स क्षण । सञ्चल सैन्धव याहा पनतेते जात । रुमाख्य सम्बरि कृष्णा समुद्रसम्भूत ॥ पांशुक्षार याहा हय अपर भूमिते। कृषक संग्रहि राखे आपन सचित्त लवणं साधु कभु ना लइवे । अनाचीर्ण दोष हते मुकति पाइवे ॥८ अनाचीर्ण दोप जैनशास्त्रे उल्लिलित । आंछे वहु महाव्रती साधुर वर्जित ।। धूपादिप्रदान वस्त्रे अंथवा शरीरे। कभु ना करिवे साधुजन अकातरे॥
औपधसेवन - द्वारा निपिद्ध वमन । वस्तिकर्म विरेचनं. करिवे वर्जन ॥ नेोते काजल कभु ना पड़े सुजन । सौन्दर्यावृद्धिर तरे साधुरी कखन ॥ ना करिवे दन्तकाष्ठे साधुरा दांतन । ना करिवे तैलद्वारा अङ्गर मन । देहेर सौन्दर्योर लागि कभु अलङ्कार। नां पड़िवे साधुजन भूषण धरार ॥8 पूर्ण उल्लिखित संव अयोग्य आचार। अनुष्ठान योग्य नहे विदित सवार ।।