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________________ दश-वैकालिक-सूत्र १७३ द्वितीय चूलिका। ज्ञानादि आचारे नित्य पराक्रमयुत । इन्द्रियादि निरोधक संवरे सुस्थित ।। संयम विशुद्धितरे देखिवे साधक । चा गुण ओ नियम पवित्र कारक ।। गृहेर विशुद्धि ज्ञान, अनियत वास । विशुद्ध वस्तुर प्राप्ति निर्जन निवास ।। वसन पात्रादि वस्तु-अल्प संरक्षण । कलह व्यापार हते दूरे आगमन ।। अप्रतिहत विशुद्ध साधुर विहार । पूर्वोक्त कार्येर नाम चर्या शुद्धाचार । गुण हय द्विप्रकार शुन साधु जन । मूल ओ उत्तर गुण संयम निदान । पिण्डेर विशुद्धि आदि आसेवना रूप । शास्त्रते कथित हय नियम स्वरूप ॥४ अनियत पान आर भिक्षा बहुरथाने । विशुद्ध वस्तुर लाभ संस्थिति विजने ॥ वस्त्र पात्र उपधिक, अल्प सरक्षण। कलह व्यापारे हाते दूर आगमन ॥ विहरण गतिस्थिति प्रशस्त मुनिरः । पालिवे सतत उहा करि बुद्धि स्थिर ।।५ जनताय परिपूर्ण कोलाहलयुतः।.. राजार दरवार किम्वा सभा समाहूत ।।
SR No.010036
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnibhushan Bhattacharya
PublisherParshwanath Jain Library Jaipur
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size5 MB
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