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दश-वैकालिक-मूत्र ।
अथ नवम अध्ययन । अथ तृतीय उद्देश । . .
अग्निर रक्षार तरे साग्निक ब्राह्मणः। अति साबधान हय सादा येमन ।। सेइ रूप साधुजन प्रबुद्ध सतत । सयन हयेन गुरु शुश्रूषाय रत । स्वगुरुर दृष्टिमात्रे बुझि अभिप्राय ।.. तार कार्य करि रत गुरुर पूजाय ॥ एतादृश शिष्य भवे सदा पूज्य हय । नाहाकेइ योग्य शिष्य सर्वलोके कय ॥१ उपदिष्ट गुरुवाफ्य यिनि शुनिवारे। अभिलाषी हन सदा ज्ञानलाभ तरे। विनय संयम यिनि करेन ग्रहण । गुरुर अवज्ञा त्यजि तिनि पूज्य हन ॥२ ये साधक दीक्षा-ज्येष्ठ मुनिर सदन । यथायोग्य नम्र भाव करे प्रदर्शन |