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दश-वकालिक-सूत्र।
सप्तम अध्ययन।
"उन्नत पयोद उहा ऊर्ध्व अवस्थित । मेघराशि एइक्षणे हइवे वर्पित ॥५२ आकाशके अन्तरिक्ष, सुरेर सेवित । वलिवेक धनिजने तारा ऋद्धियुत ।।५३ सावद्या ये भाषा किम्वा या अनुमोदिनी। निश्चय कारिणी याहा परोपघातिनी ।। वलिवेना सेइ भाषा किम्बा हास्यकथा । क्रोध लोभ भये कभु मानव सर्वथा ॥५४ स्ववाक्य-विशुद्धि किम्वा सवाक्येर शुद्धि । बुझिया लइवे साधु विक्राशि स्वबुद्धि । दोपेर आकार याहा सेरूप कखन । सतत संयत मुनि करेन वर्जन ॥ परिमित दोपहीन संयत वचन । वलि हय साधु मध्ये प्रशंसाभाजन ॥५५ दोष गुण विचारज्ञ दुष्ट भाषा त्यागी। पटकाय प्राणीते नित्य संयमानुरागी॥ श्रमण भावेते ह'ये यतनतत्पर । हितमनोहारी वाक्य वले साधुवर । ५६ सुसमाहितेन्द्रिय, ये परीक्षित भाषी। प्रगतं, कपाय चारि, याहार, मनीपी ।। द्रव्याभाव-द्वय-मुक्त, पुर्वपाप त्यागी। इहलोक परलोक पुजे मोक्षरागी ।।५७ .