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दश-वकालिक-सूत्र।
अथ षष्ठ अध्ययन।
जीवेर विरोधी हय द्वादशस्थस्थान । छय व्रत, छय काया, दोपरे निदान (१२) अकल्पनीय पिण्डर कभु आहरण, (१३) गृहस्थ-भाजन हते खाद्य रे ग्रहण, (१४) पालक शयन, किम्बा आसन ग्रहण, (१५) अकारणे गृहि-गृहे, समुपवेशन, (१६) (१७) जलेते प्रमादे स्नान,शोभाय निरत, (१८) अष्टादश-स्थान एवे हल उल्लिखित ॥ ८ साधक श्री वर्द्धमान, प्रथम स्थानीय । वलेछन अहिंसाके सूक्ष्मरूपे ज्ञय॥ आधा-कर्मा-परिभोग कृतादि रहित । अहिंसाई सूक्ष्मा वलि हयेछे कथित ।। सर्वभूत-विषयेते संयम-पालन । अहिंसा व्रतेर ह्य प्रधान लक्षण ।।६ ज्ञाता-ज्ञात, पृथ्विकाय-आदि यत प्राणी। त्रस आर स्थावरादि ना करिवे हानि ॥ निजे वा परेर द्वारा हत्या ना करावे । यथारीति जीवकुले यतने पालिवे ॥१० बाँचिते सकल जीव अभिलाप करे। मरिते कभु ना चाय, विश्वचराचरे॥ साधुगण जीवभाव करि निरीक्षण | प्राणि-बधयोग्य कार्य करेन वजन ।। ११