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८२ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्त्तृत्व
क्यों न लिखना पड़ा हो, कॉपी समय पर ही मैंने भेजी। मैने तो यहाँतक किया कि कम-से-कम छ. महीने आगे की सामग्री सदा अपने पास प्रस्तुत रखी। सोचा, यदि मैं महीनों बीमार पड़ जाऊँ, तो क्या हो ? 'सरस्वती' का प्रकाशन तबतक बन्द रखना क्या पाठकों के साथ अन्याय करना न होगा ? अस्तु, मेरे कारण सोलह-सत्रह वर्ष के दीर्घ काल में एक बार भी 'सरस्वती' का प्रकाशन नही रुका। जब मैने अपना काम छोड़ा, तब भी मैने नये सम्पादक को बहुत-से बचे हुए लेख अर्पण किये । उस समय के उपार्जित और अपने लिखे हुए कुछ लेख अब भी मेरे संग्रह मे सुरक्षित है ।
२. मालिकों का विश्वासी बनने की चेष्टा में मै यहाँतक सचेत रहा कि मेरे कारण उन्हे कभी उलझन में पड़ने की नीवत नही आई । 'सरस्वती' के जो उद्देश्य थे, उनकी रक्षा मैंने दृढता से की। एक दफे अलबत्ता मुझे इलाहाबाद के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के बंगले पर हाजिर होना पड़ा । पर मैं भूल से तलब किया गया था । किसी विज्ञापन के सम्बन्ध में मजिस्ट्रेट को चेतावनी देनी थी, वह किसी और को मिली; क्योकि विज्ञापनो की छपाई से मेरा कोई सरोकार न था । मेरी सेवा से 'सरस्वती' का प्रचार जैसे-जैसे बढ़ता गया और मालिको का मैं जैसे-जैसे अधिकाधिक विश्वासभाजन बनता गया, वैसे ही वैसे मेरी सेवा का बदला भी मिलता गया । और, मेरी आर्थिक स्थिति प्रायः वैसी ही हो गई, जैसी कि रेलवे की नौकरी छोड़ने के समय थी । इसमें मेरी कारगुजारी कम, दिवंगत बाबू चिन्तामणि घोष की उदारता ही अधिक कारणीभून थी । उन्होने मेरे सम्पादन - स्वातन्त्र्य मे कभी बाधा नही डाली । वे मुझे अपना कुटुम्बी-सा समझते रहे और उनके उत्तराधिकारी अबतक भी मुझे वैसे ही समझते है ।
३. इस समय तो कितनी ही महारानियाँ तक हिन्दी का गौरव बढ़ा रही है, पर उस समय एकमात्र 'सरस्वती' ही पत्रिकाओं की रानी नही. पाठको की सेविका थी । तब उसमे कुछ छापना या किसी के जीवन चरित्र आदि प्रकाशित करना जरा बड़ी बात समझी जाती थी । दशा ऐसी होने के कारण मुझे कभी-कभी बड़े-बड़े प्रलोभन दिये जाते थे । कोई कहता, मेरी मौसी का मरसिया छाप दो, मै तुम्हें निहाल कर दूँगा । कोई लिखता, अमुक सभापति की स्पीच छाप दो, मै तुम्हारे गले मे बनारसी दुपट्टा डाल दूँगा । कोई आज्ञा देता, मेरे प्रभु का सचित्र जीवनचरित निकाल दो, तुम्हे एक बढ़िया घड़ी या पैरगाड़ी नजर की जायगी। इन प्रलोभनों का विचार करके मै अपने दुर्भाग्य को कोसता और कहता कि जब मेरे आमलों को खुद मेरी ही पत्नी ने गिराकर चूर कर दिया, तब भला मैं वे घड़ियाँ और पैरगाड़ियाँ कैसे हजम कर सकूँगा। नतीजा यह होता कि मै बहरा-गूगा बन जाता और 'सरस्वती' मे वही मसाला जाने देता, जिससे मैं पाठकों का लाभ समझता । मै उनकी रुचि का सदैव खयाल रखता और यह देखता रहता कि मेरे किसी काम से उनको