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५२ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पत्र-पत्रिकाओं की कतरनें, कला-भवन और कार्यालय में तीस हजार पत्र, सैकड़ों पत्रिकाओं की फुटकल प्रतियाँ, दस आलमारी पुस्तकें, दौलतपुर में रक्षित पत्र, कतरने, न्याय-सम्बन्धी कागज-पत्र नक्शे, चित्र, हस्तलिखित रचनाएँ आदि एक महान् पुरुष की संग्रह-भावना की साक्षी है।"१
निष्कर्षतः, द्विवेदीजी की यह संग्रहवृत्ति भी परवर्ती शोधकर्ताओ के लिए वरदानस्वरूप सिद्ध हुई हैं। (ढ) दानवीरता :
द्विवेदीजी अपने पास कागज-पत्रों का संग्रह करते थे, परन्तु अपने पास के धन का खुले हाथों से दान करते थे। वे अपने आय-व्यय के पैसे-पैसे का हिसाब रखते थे। बाहर से आनेवाले पत्रो, अखबारों आदि के लिफाफों और सादे कागजों का वे मितव्ययिता के साथ उपयोग करते थे। परन्तु, इतनी मितव्ययिता के साथ पूरा परिश्रम करके जिस धन का उन्होंने अर्जन किया, उसका अधिकांश उन्होने दान कर दिया। अपनी गाढ़ी कमाई के ६४०० रु० उन्होंने काशी-हिन्दू-विश्वविद्यालय को दान कर दिये। अपने दौलतपुर के निवासकाल मे उन्होंने गाँव के गरीबो की लड़कियों के विवाह में, निर्धनों की विपन्नावस्था में एवं विधवाओं के संकट में सदैव सहायता की। परोपकार में ही उन्हें आनन्द मिलता था।
(ण) धार्मिक आचरण:
द्विवेदीजी ईश्वर में अटल विश्वास रखते थे, परन्तु उन्होंने अपने को कभी धार्मिक बन्धनों में नही जकड़ा। वस्तुतः, वे आडम्बर अथवा दिखावा पसन्द नहीं करते थे। इसी कारण बाह्य दष्टि से देखनेवाले आसपास के लोग उन्हें प्रायः नास्तिक समझते थे। वे नियमित रूप से पूजा-पाठ, सन्ध्या-वन्दन आदि कुछ भी नहीं करते थे। परन्तु, कर्मकाण्ड का वे पूरी तरह पालन करते थे। शुभकार्य को सगुन या घड़ी विचार कर करते थे। विवाह आदि की परम्परित रीतियों का वे पालन करते थे । श्रीमद्भागवत और रामायण में भी श्रद्धा रखते थे। फिर भी, धार्मिक वन्धन उन्हें जकड़ नहीं सके । आडम्बरहीन ईश्वर-भक्ति करनेवाले द्विवेदीजी यह कभी नहीं भूलते थे कि वे उच्च ब्राह्मण-कुल में उत्पन्त हैं । उग्रता, कठोरता, समयज्ञता, व्यवस्थाप्रियता, न्यायप्रियता आदि उनकी कई चारित्रिक विशेषताओं का उनके व्यक्तित्व में विकास ब्राह्मणोचित शैली में ही हुआ। द्विवेदीजी के हृदय में अपनी जाति की वजह से कुछ दुर्बलताएं भी थीं। उन्होंने सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज (काशी) में
२. डॉ० उदयभानु सिंह : 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनका युग', पृ० ५५ ।