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जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्व [ ४९ न्याय की रक्षा के लिए यदि किसी अकिचन को आर्थिक दण्ड दिया, तो करुणा के वशीभूत होकर उन्होंने उसका जुरमाना अपने पास से भी चुकाया था। सम्पादक, ऑनरेरी मुसिफ और सरपंच के पदों पर रहते समय उन्हें न जाने कितने प्रलोभन दिये गये । परन्तु, उन सबको ठुकराकर द्विवेदीजी ने सचाई और न्याय की रक्षा की। सम्पादन-काल में अपने हानि-लाभ की परवाह न करके उन्होंने सदा ही 'सरस्वती' के स्वामी और पाठकों का ध्यान रखा । इसी प्रकार, 'न्यायाधीश' के पद से उन्होंने पाप और पुण्य को निष्पक्ष भाव से न्याय की तुला पर तौला । इस न्यायप्रियता ने द्विवेदीजी के व्यक्तित्व के उत्कर्ष को एक अतिरिक्त आधार दिया। (ञ) व्यवहारकुशलता एवं अतिथि-सेवा : __ आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी अपने निष्कपट व्यवहार, सरल एवं सरस प्रेम तथा सहृदयता के कारण औरों के लिए ईर्ष्या करने योग्य आचरणवाले पुरुष थे। जीवन-भर उन्होंने अपने सभी परिचितों-सम्बन्धियों के साथ यथायोग्य कुशल व्यवहार किया और अपने आचरण से सबको मोहित रखा। द्विवेदीजी शिष्टाचार के पूरे पालक थे। जब कोई उनके पास जाता, तब अपनी डिबिया से दो पान उसे देते और बातचीत समाप्त होने पर फिर दो पान देते, जो इस बात का संकेत होता था कि अब आप जाइए । उनके शिष्टाचार में किसी प्रकार का आडम्बर नहीं था। वे सही अर्थों में शिष्ट आचार के समर्थक थे। बातचीत के क्रम में वे अपने सरल एवं सहृदय स्वभाव की छाप बातचीत करनेवाले के मन पर छोड़ देते थे।
व्यावहारिक कुशलता के बीच द्विवेदीजी के आचरण की एक विशिष्टता उनकी अतिथिसेवा थी। जिन्हें उनका अतिथि बनने का गौरव प्राप्त हुआ, वे इस सत्य से भली भाँति परिचित थे कि अपने प्रत्येक अतिथि की सेवा वे आत्मविस्मृत होकर किया करते थे। एक बार कानपुर में श्रीकेशवप्रसाद मिश्र उनके घर रात में ठहरे । जब वे सोकर उठे,तब देखा कि द्विवेदीजीस्वयं लोटे में जल लेकर खड़े हैं । मिश्रजी लज्जित हो गये । इसपर द्विवेदीजी ने कहा कि वाह, तुम तो मेरे अतिथि हो। उनके अतिथि-सत्कार का एक ऐसा ही संस्मरण पं० सीताराम चतुर्वेदी ने लिखा है : "एक बार मैं रायबरेली के कवि-सम्मेलन में गया । विचार हुआ कि दौलतपुर जाकर दर्शन कर आया जाय । मै पहुंचा, तो दिन ढल रहा था, देखते ही उठ खड़े हुए और अत्यन्त आत्मीयतापूर्ण स्नेह से पूछा : 'अरे, यह अकस्मात् विना पूर्व सूचना दिये कहाँ से ?' मैंने कहा कि 'मन्दिर में सूचना देकर थोड़े ही कोई जाता है ?' बड़े गद्गद हुए। जलपान की व्यवस्था करने लगे। मैंने बहुत आग्रह किया कि उपचार न कीजिए। उन्होंने कहा कि 'उपचार नहीं है, यह आतिथ्याचार है ।' वे मेरे दुरभ्यास से परिचित थे कि मैं कहीं खाता-पीता नहीं हूँ।