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४२ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व __ "द्विवेदीजी सचमुच 'वज्रादपि कठोराणि मुदूनि कुसुमादपि' चरित्रवाले लोकोत्तर पुरुष थे। उच्छृखलता न उन्हें साहित्य में पसन्द थी और न जीवन में। वे दुष्टों के कट्टर शत्रु थे, बड़े निर्भीक और प्रभावशाली। कर्मक्षेत्र में वे बराबर वज्र रहे, पर क्षेत्र-त्याग के अनन्तर वे बड़े ही कोमल हो गये। ऐसा भासित होता है कि उनकी उग्रता आरोपित थी, वे जान-बूझकर अपने को कड़ा बनाये रखते थे, हृदय से बड़े कोमल थे। जिन द्विवेदीजी ने सम्पादन-काल में पुस्तकों की छोटी-छोटी त्रुटियों के लिए लेखकों और प्रकाशकों को लथेड़ा था, विश्राम ग्रहण करने पर उन्होंने मुक्त कण्ठ से सबकी प्रशंसा आरम्भ कर दी।"१
द्विवेदीजी की कोमलता एवं क्षमाशीलता भी अपने-आप में आदर्श थी। वे अपने मित्रों-शिष्यों को क्षमा करने में तनिक भी संकोच नही करते थे। 'अभ्युदय' के मैनेजर ने अपने 'निबन्ध-नवनीत' में द्विवेदीजी के निबन्ध 'प्रतापनारायण मिश्र का जीवन-चरित' संगृहीत कर लिया था और इसी प्रकार बाबू भवानीप्रसाद ने उनकी कुछ कविताएँ अपनी पुस्तक 'शिक्षा-सरोज' एवं 'आर्यभाषा-पाठावली' में उनकी अनुमति के बिना ही संगृहीत की थीं। द्विवेदीजी पहले तो उन दोनों सज्जनी पर बड़े क्रुद्ध हुए, पर बाद में क्षमा कर दिया। इसी प्रकार, वे श्री बी० एन्० शर्मा पर उनके सैद्धान्तिक आक्षेपों के कारण इतने अधिक कुपित हुए थे कि उन्होंने शर्माजी पर मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। परन्तु, जब श्री बी० एन्० शर्मा ने द्विवेदीजी से क्षमा माँगी, तब कोमलहृदय द्विवेदीजी अति शीघ्र पिघल गये । द्विवेदीजी का निजी क्रोध जिस शीघ्रता के साथ शान्त होता था, उसी प्रकार द्विवेदीजी औरों का क्रोध भी शान्त किया करते थे। उन्होंने अपने एक लेख में नागरी-प्रचारिणी सभा की आलोचना की थी, यद्यपि उन्हें सभा के आदर्शों और उद्देश्यों से पूर्ण सहानुभूति थी। इसपर सभी की ओर से पं० केदारनाथ पाठक उनके पास आ धमके और क्रुद्ध स्वर में बोले : 'आलोचना का हमें किस रूप में प्रतिवाद करना होगा ?' द्विवेदीजी मुस्कराते हुए बोले : 'देवता, जरा ठहर जाओ, धीरज तो रखो।' और, वे अपने घर के भीतर से एक तश्तरी में मिठाई, एक लोटा जल और एक मोटी लाठी लेकर बाहर आये । फिर, वे सहज स्वर में पाठकजी से बोले : 'आप याना से थक गये होंगे, हाथ-मुँह धोकर जल्दी से नाश्ता कर लें, सबल हो जायें। तब यह लाठी है और यह मेरा मस्तक है। मेरी आलोचना के बदले जी भरकर मुझे पीट लेना।' द्विवेदीजी से यह बातें सुनकर पाठकजी का न केवल क्रोध हिरन हो गया, अपितु वे द्विवेदीजी के भक्त हो गये। इसी प्रकार के अनेकानेक प्रसंग द्विवेदीजी के जीवन से
१. विश्वनाथप्रसाद मिश्र : 'हिन्दी का सामयिक साहित्य', पृ० २५ ।'