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२१४ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
इस प्रकार, द्विवेदीजी ने मुख्यतया खड़ी बोली की कविता लिखी । व्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य-रचना करने के साथ-ही-साथ उन्होंने संस्कृत मे भी कविताओं की सृष्टि की। संस्कृत-काव्यग्रन्थों को अनूदित करने के प्रसंग में ही उन्हें संस्कृत में कविताओं को लिखने की प्रेरणा मिली होगी। 'कान्यकुब्जलीव्रतम्' उनकी प्रथम संस्कृत-रचना थी, जिसका प्रकाशन सन् १८९८ ई० में हुआ था। इसकी परम्परा में द्विवेदीजी ने 'समाचारपत्र-सम्पादकस्तवः' (सन् १८६८ ई०), 'कथमहं नास्तिकः'', 'शिवाष्टकम्', 'प्रभातवर्णनम्', 'काककूजितम्', 'सूर्यग्रहणम्', 'कान्यकुब्जलीलामृतम्' आदि संस्कृत-कविताओं की रचना की। द्विवेदीजी की इन कविताओं की भाषा अलंकारमयी, चमत्कारपूर्ण एवं सरस है । अर्थान्तरन्यास से सम्पन्न उनकी काव्यकला का यह उदाहरण द्रष्टव्य है :
छायां करोति वियति स्म यदा यदेन्दुः श्यामप्रभा वितनुते स्म तदा तदार्कः । आपत्सु देवविनियोगकृतागमासु,
धीरोऽति यादि यदने किल कालिमानम् ॥ इसमें सन्देह नहीं कि उनकी संस्कृत-पदावली खड़ी बोली की अधिकाश कविताओं की तुलना में विशेष सरस, काव्यपूर्ण और प्रसादगुण-सम्पन्न है। एक और भी दाहरण द्रष्टव्य है :
. कुशेशयः स्वच्छजलाशयेषु वधूमुखाम्भोजदलंग हेषु । धनेषु पुष्पैः सवितुः सपर्यया
तत्पादसंस्पर्शनया कृतासीत् ॥3 व्रजभाषा, खड़ी बोली और संस्कृत में काव्य-रचना करने के साथ-ही-साथ द्विवेदीजी ने अपनी ग्रामीण भाषा बैसवाडी में भी कविता लिखी। बैसवाडी बोली में लिखी गई उनकी एकमात्र 'कविता' 'सरगौ नरकः ठेकाना नाहिं' उस समय मे प्रचलित भाषा-विवाद की देन थी। बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने 'भारतमित्र' में द्विवेदीजी के ख्यात निबन्ध 'भाषा और व्याकरण' की धारावाहिक कटु समीक्षा करने के बाद उनकी घरेलू भाषा बैसवाड़ी का उपहास 'हम पंचन केटवाला माँ' लेख लिखकर किया। इसी से क्षुब्ध होकर द्विवेदीजी ने बैसवाड़ी' में 'सरगौ नरक
१. 'राजस्थान-समाचार', १५ मई, १८९९ ई० । २. श्रीदेवीदत्त शुक्ल : (म०) 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० २०६ । ३. उपरिवत् । ४. 'सरस्वती', जनवरी, १९०६ ई० ।