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२१२ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कत्तुं त्व
उन्नीसवीं शताब्दी में ही रचित एवं प्रकाशित उनकी कई अन्य कविताओं में भी व्रजभाषा का ही प्रयोग हुआ है । ऐसी कविताओं में 'भारत दुभिक्ष'' 'नाहि ! वाहि !! ताहि !!!'२ 'बालविधवा-विलाप'3 जैसी कविताओं की चर्चा की जा सकती है। इनमें प्रयुक्त व्रजभाषा को देखने से साफ पता चलता है कि द्विवेदीजी धीरे-धीरे खड़ी बोली की ओर उन्मुख हो रहे थे । व्रजभाषा से खड़ी बोली की ओर झुकाव उनकी अधोलिखित पंक्तियों में परिलक्षित होता है :
लोचन चले गये भीतर कहें, कंटक समकच छाये, कर में खप्पर लिये, अनेकन जीरण पट लपटाये । मांसविहीन हाड़ी को ढेरी, भीषण भेष बनाये,
मनहु प्रबल दुर्भिक्ष रूप धरि बहु विचरत सुख पाये ॥४ 4. बम्बई से प्रकाशित समाचार-पत्र 'श्रीवेंकटेश्वर-समाचार' के १९ अक्टूबर, १९०० ई० वाले अंक में द्विवेदीजी की खड़ी बोली की पहली कविता 'बलीवर्द' प्रकाशित हुई। इसके पूर्व भी उनकी खड़ी बोली की कतिपय कविताएँ विविध पत्र-पत्रिकाओं में छपी थीं, परन्तु उनपर व्रजभाषा का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। द्विवेदीजी की ऐसी कविताओं में 'गर्दभ-काव्य'५, 'प्रार्थना' ६, 'नागरी का विनय', 'सुतपंचाशिका', 'मेघोपालम्भ'९' 'अयोध्या का विलाप'१०, 'कृतज्ञता-प्रकाश' ११ आदि उल्लेखनीय हैं । इनकी भाषा में व्रजभाषा का प्रभाव है और खड़ी बोली का निखरा और सुधरा हुआ रूप नहीं है। सन् १९०० ई० में प्रकाशित द्विवेदीजी . के 'नागरी' शीर्षक संकलन की चारों कविताओं की भाषा भी ऐसी ही है। परन्तु, 'बलीवर्द' कविता के
प्रकाशित होने के बाद द्विवेदीजी ने मात्र खड़ी बोली में ही कविताएँ लिखीं। - सन १९०१ ई० से उनकी कविताओं में व्रजभाषा के प्रभावों का लोप हो गया ।
१. 'हिन्दोस्थान', ११ मार्च, १८९७ ई० । २. 'हिन्दी-बंगवासी', २९ नवम्बर, १८९७ ई० । ३. 'भारतमित्र', ७ अक्टूबर, १८९८ ई० । ४. श्रीदेवीदत्त शुक्ल : 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० १७५ । ५. 'हिन्दी-बंगवासी', २९ अगस्त, १८६८ ई० । ६. श्रीवेंकटेश्वर-समाचार', ७ अप्रैल, १८९९ ई० । ७. 'भारतजीवन', १५ मई, १८६६ ई०। ८. 'भारतमित्र', ८ जनवरी, १९०० ई० । ९. "हिन्दी-बंगवासी', ४ दिसम्बर, १८९९ ई० । . १०. 'सुदर्शन', मार्च, १९०० ई.। ११. उपरिवत्, अप्रैल, १९०० ई० ।