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२१० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
प्रवृत्ति को सामाजिक आधारों से अलग करके नहीं रखा जा सकता । आचार्य द्विवेदी समय के सन्दर्भो से भली भाँति परिचित थे। इसलिए, उनका वस्तुवृत्त न तो कोई रोमाण्टिक अवधारणा का आग्रह किये हुए है और न ही किसी तरह के आध्यात्मिक ‘परिवेश की रचना करता है। इस दृष्टि से आचार्य द्विवेदी शास्त्रीय परम्परा के अनुगामी होते हुए भी अपने वर्तमान से विलग नही है।''
वर्तमान समस्याओं से सम्बद्ध द्विवेदीजी का अधिकांश मौलिक काव्य सोद्देश्य रचित है। उनका उद्देश्य था, नैतिक-सामाजिक-साहित्यिक आदर्शों का उपस्थापन । द्विवेदी-युगीन परिवेश ही कुछ ऐसा था कि सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक स्तरों पर आदर्शवादी मूल्यों की स्थापना होने लगी थी । इन युगीन आन्दोलनों के प्रभावस्वरूप साहित्य में आदर्शवादी चेतना का प्रारम्भ हो गया। नैतिक दृष्टि से सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक विश्वासों का गठन ही आदर्शवाद कहलाता है । काव्य में आदर्शवादी चेतना द्विवेदीजी की मौलिक देन नही थी। डॉ० गणपति चन्द्रगुप्त के शब्दों में :
"आदर्शवादी काव्य-चेतना का प्रस्फुटन आधुनिक हिन्दी-काव्य में सर्वप्रथम 'भारतेन्दु की रचनाओ मे दृष्टिगोचर होता है ।२
परन्तु, इस आदर्शवादी काव्य-परम्परा को हिन्दी-कविता पर पूर्णतया आच्छादित करने का श्रेय द्विवेदीजी को ही दिया जा सकता है। उनकी अपनी कविताओं में तथा उनके आदेश एवं प्रेरणा से रचित अन्य कवियों की कविताओ मे इस आदर्शवाद का बहुविध विस्तार हुआ है । द्विवेदी-युगीन काव्य का मम्पूर्ण परिवेश ही नैतिक आदर्शवाद में जकड़ गया था । मनोरंजन के साथ-साथ उपदेश भी इस युग में कविता का प्रधान लक्ष्य बन गया था। इसी आदर्शवादी एवं उपदेशात्मक पृष्ठभूमि में द्विवेदीजी के मौलिक काव्य का अध्ययन ममीचीन होगा। वे अपनी काव्य-साधना के प्रारम्भिक युग में अनुवादों में संलग्न थे, परन्तु शीघ्र ही वे मौलिक कविताओं की रचना की ओर प्रवृत्त हुए। प्रारम्भ में उन्होंने व्रजभाषा में ही कविताएँ लिखीं, संस्कृत में काव्य-रचना की। परन्तु, फिर बाद में उन्होंने खड़ी बोली में कविताओं की रचना शुरू कर दी । "इस दिशा में अपने-आप को विशेष सफल नहीं होता देखकर उन्होंने काव्य-रचना से अपनी लेखनी को शीघ्र ही मुक्त कर दिया और अपनी सम्पूर्ण शक्ति अपने समकालीन कवियों का मार्ग-निर्देशन करने में लगाई। द्विवेदीजी की यथानिर्दिष्ट मौलिक काव्यकृतियों की चर्चा होती रही है :
डॉ. गंगाप्रसाद विमल : 'द्विवेदीजी की काव्यसृष्टि', 'भाषा' : द्विवेदी-स्मृति अंक, पृ० ८९। २. डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त : 'हिन्दी-साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास', पृ० ६१५..