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कविता एवं इतर-साहित्य [ २०७ उद्धृत पद्याशों की मूल श्लोकों से तुलना करने पर स्पष्ट होता है कि द्विवेदीजी ने संस्कृत-काव्यों का अनुवाद करते समय भावाभिव्यंजन को यथावत् रखने के साथ-हीसाथ काव्य-प्रसाधनों को भी यथाशक्ति ज्यों-का-त्यों रखने का प्रयास किया है। अपने अनूदित काव्यग्रन्थों के अतिरिक्त, 'सरस्वती' में प्रकाशित कतिपय अनूदित कविताओं में भी द्विवेदीजी ने यही नीति अपनाई है। नवम्बर, १९०० ई० की 'सरस्वती' में प्रकाशित 'द्रौपदी-वचन-वाणावली' शीर्षक कविता भारवि-कृत 'किरातार्जुनीयम्' के प्रथम सर्ग के २७-४६ श्लोको का पद्यबद्ध भाषान्तर है । द्विवेदीजी ने अपनी सभी अनूदित कविताओं में भाव, काव्य-सौन्दर्य तथा दृश्यविधान को यथोचित रूप से मूल कृति से ग्रहण किया है। पात्रों की भाव-भंगिमा.मुद्रा, प्रकृति आदि को प्रस्तुत करनेवाले बिम्ब मूल रचना की टक्कर के न होते हुए भी सुन्दर बन पड़े हैं। एक सुन्दर अनुवाद द्रष्टव्य है, इसमें समाधिमग्न शिव की भव्य आकृति का अंकन हुआ है :
तन का भाग ऊपरी स्थिर या, वीरासन में थे शंकर, वे विशेष सीधे भी थे, पर कन्धे थे विनम्र अतितर। उलटे रक्खे देख पाणियुग मन में ऐसा आता था,
खिला कमल उनकी गोदी में मानों शोभा पाता था। द्विवेदीजी का अनूदित काव्य उनकी साहित्य-साधना के प्रारम्भिक वर्षों की देन है, इस कारण इन कविताओं में व्याकरण और भाषा की दृष्टि से दोषों की भी अच्छी उपस्थिति मिलती है। इन रचनाओं की खड़ी बोली प्रायः संस्कृतनिष्ठ है। 'विनयविनोद', 'श्रीमहिम्नःस्तोत्र', 'विहारवाटिका', 'स्नेहमाला', 'ऋतुतरंगिणी' जैसी उनको प्रारम्भिक अनूदित काव्यकृतियों की तो भाषा परम्परित व्रजभाषा ही थी । परन्तु, इस अवधि की उनकी तत्समप्रधान खड़ी बोली से सम्पन्न कविताओं पर भी व्रजभाषा का प्रभाव कहीं-कहीं दीखता है । संस्कृत-रचना का अनुवाद करते समय द्विवेदीजी तत्सम भाषा के सुन्दर उपस्थापन के प्रति सचेष्ट थे। इसी कारण उनकी इन अनूदित रचनाओं में प्रिय, लुनाई, तदपि, आसीम, नहि, तौ, आय, लगाय, मधुरताई जैसे बोलचाल के प्रयोग कम मिलते हैं । ऐसे दोषों की संख्या उनकी प्रारम्भिक मौलिक कविताओं मे अधिक है। परन्तु, अनूदित रचनाओं में कहीं-कहीं द्विवेदीजी ने वाक्य-रचना और शब्द-स्थापना में ऐसी अव्यवस्था ला दी कि अर्थबोध में कठिनाई होती है। जैसे, द्रौपदी क्रुद्ध होकर कहती है :
वस्त्रहरण आदिक अति दुस्सह दुःख, तथापि आज इस काल,
बार-बार प्रेरित करते हैं मुझे बोलने को भूपाल ।२ इस पद्य में कवि का आशय कठिनाई से स्पष्ट होता है। मूल रचना पढकर ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वस्त्रहरण आदि जैसे अति दुस्सह दुःख सहकर भी
१. देवीदत्त शुक्ल : (सं०) 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० ३२६ । २. उपरिवत्, पृ० २८२ ।