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________________ १९२ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व कवि' थे, जो अपनी कविताओं का भाव समझने मे आप ही असमर्थ थे । इससे अधिक आश्चर्य की बात भला और क्या हो सकती है कि स्वयं कवि भी अपनी कविता का मतलब दूसरों को न समझा सके। यह शिकायत शिवन्न शास्त्री ही की नहीं, और भी अनेक कविता-प्रेमियों की है ।" " द्विवेदीजी कविता को प्रासादिकता और भावों की सम्प्रेषणीयता के वैसे ही पुरजोर समर्थक है, जैसे टॉल्सटाय थे । द्विवेदीजी तो यहाँतक कहते है कि " आजकल जो लोग रहस्मयी या छायामुलक कविता लिखते है, उनकी कविता से तो उनलोगों की पद्य रचना अच्छी होती है, जो देशप्रेम पर अपनी लेखनी चलाते या, 'चलो वोर पटुआ खाली' की तरह की पंक्तियो की सृष्टि करते है । इनमे कविता के और गुण भले ही न हों, पर उनका मतलब तो समझ में आ जाता है। पर, छायावादियों की रचना तो कभी-कभी समझ में भी नही आती । ये लोग बहुधा बड़े ही विलक्षण छन्दो या वृत्तो का भी प्रयोग करते हैं । कोई चौपदे लिखते है । कोई छ. पदे, कोई ग्यारहपदे । किसी की चार सतरें गज भर लम्बी, तो दो सतरे दो-ही-दो अंगुल की । फिर भी, ये लोग बेतुकी पद्यावली भी लिखने की बहुधा कृपा करते हैं । इस दशा में इनकी रचना एक अजीब गोरखधन्धा हो जाती है । न ये शास्त्र की आज्ञा के कायल, नये पूर्ववर्त्ती कवियों की प्रणाली के अनुवर्त्ती, न ये सत्समालोचकों के परामर्श की परवा करनेवाले ! इनका मूलमन्त्र है : 'हम चुना दीगरे नेस्त' । इस हमादानी को. दूर करने का क्या इलाज हो सकता है, कुछ समझ में नही आता ।" " से द्विवेदीजी की व्यावहारिक आलोचनाएँ तथ्यपरक, निर्भीक तथा विद्वत्तापूर्ण होती हैं । वे जिस विषय पर लिखते है, जिस कवि, लेखक या ग्रन्थ की आलोचना करते है, उसके सम्बन्ध में प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख कर देना सत्समालोचक का कर्त्तव्य मानते हैं । इसलिए, उनमें अनुसन्धित्सु की जिज्ञासा और परिनिष्ठित आलोचक का वैकुप्प मिलता है । उनकी आलोचनाओं के अध्येता उनके तर्कों की प्रामाणिकता से ही नहीं, उनके निवन्धों की रोचकता और पठनीयता से भी प्रभावित हुए बिना नही रहते । द्विवेदीजी की लेखनी कठिन कठिन विषय को सरलातिसरल ढंग से प्रस्तुत करने में सक्षम है । जिस प्रसादिकता की कसौटी पर वे छायावादी काव्य को परखते हैं, उसी प्रसादगुण के निकष पर उनका गद्य खरा उतरता है । इसमें सन्देह नहीं कि द्विवेदीजी के निबन्ध प्रसादगुण सम्पन्न एवं प्रत्ययकारी होते हैं । उदाहरणार्थ, 'पुरानी समालोचना का एक नमूना' शीर्षक निबन्ध को लें । 'विचार-विमर्श' में सगृहीत यह निबन्ध जितना रोचक है, उतना ही तथ्यमूलक एवं शोधपरक भी । इसमें द्विवेदीजी ने यह प्रमाणित करना चाहा है कि 'अप्पयदीक्षित और जगन्नाथ राय के जमाने में यदाकदा वैसी ही मृदु, मधुर, सच्ची और निर्दोष समालोचनाएँ होती थीं, जैसी कि आजकल १. महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'साहित्यालाप', पृ० ३४१-३४२ ।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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