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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १८७०
मूलक समीक्षा के स्थान पर भावोद्गार प्रकट करने लगते हैं । इसका कारण स्पष्ट है कि एक ओर तो छायावादी कविता की नवीनता और शिल्पगत मौलिकता. जिसपर पाश्चात्त्य रोमाण्टिसिज्म का भी प्रभाव दृष्टिगत होता है, उनमें सन्देह का उद्र ेक करती है, दूसरी ओर उनके काव्यगत आदर्श उन्हें ऐसी आलोचना लिखने के लिए प्रेरित करते है । द्विवेदीजी की अभिरुचि जिन कविताओं से पोषित हुई थी, वे छायावादी कविताओं से नितान्त भिन्न थीं । जहाँ उनके मनोनुकूल कवियो की रचनाएँ सरल होती थी, वहाँ उनके अनुसार, छायावादी कविता 'क्लिष्ट कल्पनाओं और शुष्क शब्दाडम्बर' पर आधृत 'विजृम्भण' - मात्र होती है । जहाँ उत्कृष्ट कविताओं में सरल भावों का सम्प्रेषण होता है, वहाँ छायावादी कविताएँ अस्पष्ट और दुरूह होती है ।
" गद्य हो या पद्य, उसमे से जो कुछ कहा गया हो, वह श्रोता या पाठक की समझ में आना चाहिए। वह जितना ही अधिक और जितना ही जल्दी समझ में आवेगा, गद्य या पद्य के लेखक का श्रम उतना ही अधिक और उतना ही शीघ्र सफल हो जायगा । जिस लेख या कविता में यह गुण होता है, उसकी प्रासादिक संज्ञा है । कविता में यदि प्रसाद गुण नही, तो कवि की उद्देश्य सिद्धि जाती है । कवियों को इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिए। उसे इस तरह कहना चाहिए कि वह पढ़ने या सुननेवालों की
अधिकांश में व्यर्थ
जो कुछ कहना हो,
समझ में
तुरन्त ही
आ जाय ।" "
विवेच्य निबन्ध को महत्त्वपूर्ण मानने का एक और कारण है । इसमें द्विवेदीजी ने छायावादी कवियों की आलोचना ही नहीं की है, वरन् कविता-सम्बन्धी अपनी आधारभूत मान्यताओं का भी उल्लेख किया है । द्विवेदीजी काव्य-प्रयोजनों में ख्याति, धनार्जन और मनोरंजन का उल्लेख करते है। उनका कथन है कि कविता ख्याति के लिए, यशः प्राप्ति के लिए की जाती है। उन्होंने तुलसीदास के सन्दर्भ में एक और प्रयोजन का उल्लेख किया है और बताया है कि कविता स्वान्तः सुखाय भी हो सकती है । 'परमेश्वर का सम्बोधन करके कोई कवि आत्मनिवेदन भी, कविता द्वारा ही, करता है । पर ये बातें केवल कवियों ही के विषय में चरितार्थ होती है । अस्मदादि लौकिक जन तो और ही मतलब से कविता करते या लिखते है और उनका वह मतलब ख्याति, लाभ और मनोरंजन आदि के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता । १२ द्विवेदीजी को विश्वास है कि कविता अपने उद्देश्य मे तभी सिद्ध होती है, जब उसका भावार्थ 'दूसरों की समझ में झट आ जाय ।' कविता का प्रसाद गुण ही
१. महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'साहित्यालाप', पृ० ३३७-३८ ॥ २. उपरिवत् पृ० ३२७ ।