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१८४ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्त्तृत्व
अनुरूप बनाये । द्विवेदीजी के अनुसार काव्यशास्त्र के अध्ययन से अपनी 'कवित्व शक्ति' ICT विकास करनेवाले शिष्य तीन प्रकार के होते है : अल्पप्रयत्नसाध्य, कृच्छ्रसाध्य और असाध्य |
कहने की आवश्यकता नही कि द्विवेदीजी के द्वारा उपन्यस्त यह वर्गीकरण क्षेमेन्द्र के कविकण्ठाभरण से उद्धृत है । भारतीय आचार्य यह कहते हैं कि कतिपय शिष्य अल्प प्रयत्न से ही काव्यकला में पारंगत हो जाते है और कुछ (शिष्य) 'वर्षों सिर पीटने पर भी ' कुछ नहीं कर पाते । शिष्यों का एक वर्ग विशेष परिश्रम करने से काव्यकला में नैपुण्य प्राप्त कर लेता है। प्रथम कोटि अल्पप्रयत्नसाध्य, द्वितीय कोटि कृच्छ्रसाध्य एवं तृतीय कोटि असाध्य शिष्यों की है । द्विवेदीजी ने प्राचीन मतवादों का आश्रय लेकर अल्पप्रयत्नसाध्य शिष्यों के कर्त्तव्य का सविस्तर विवरण प्रस्तुत किया है । जिस युग में कवियों की एक अटूट श्रृंखला दीख पड़ती हो, उनकी बाढ़ आ गई हो, पर साथ ही कविता के नाम पर तुक बन्दियाँ हो रही हों और सन्त कवि उपेक्षित हो रहे हों, उस युग के लिए द्विवेदीजी का यह विवरण अत्यन्त प्रासंगिक एवं समीचीन जान पड़ता है । ast बोली की कविता के विकास काल में, जबकि देश के कोने-कोने में राष्ट्रीय जागरण की भावना वड़ी व्याप्त थी और जनसाधारण में इस भावना का उन्मेष हो चुका था, कवि बनने की लालसा भी - यश और जयत्व पाने की अभिलाषा भी बहुतों के हृदय में उन्मीलित हो चुकी थी । ऐसे समय में प्रोत्साहन की आवश्यकता कम, अनुशासन की अपेक्षा अधिक होती है । द्विवेदीजी की आलोचना यदि प्रोत्साहन है, तो अंकुश भी । यह उन लोगों के लिए प्रोत्साहन थी, जिनमें 'कवित्व शक्ति बीजरूप से निहित थी । उनका लक्ष्य इस शक्ति को ' अंकुरित' करना था ।' जिन कवियों में इस शक्ति का सर्वथा अभाव था, पर जो असाध्य होकर भी तुकबन्दी करने में दत्तचित्त थे, उनके लिए उनकी आलोचना निःसन्देह अंकुश थी ।
'कवित्व शक्ति' के जिस विशद वर्णन का उल्लेख हम कर रहे है, उसकी प्रासंगिकता इसी कारण असन्दिग्ध है । कुछ कवि नामधारी व्यक्ति का दुरुपयोग कर रहे थे और कुछ इसके अभाव में मान तुकबन्दी | प्रस्तुत निबन्ध के माध्यम से द्विवेदीजी यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि कवि में प्रतिभा और सर्जना शक्ति होना अनिवार्य है । कवि की यह शक्ति अपने-आप में एक स्थायी मानदण्ड है । जिस कविता में अत्यधिक आयास हो, जिसकी पंक्तियाँ रुक-रुक कर चलती हों, जिसमें प्रवाह न हो, वह ऐसे कवि की रचना है, जिसमें 'कवित्व शक्ति' नहीं । आचार्य द्विवेदी और छायावाद :
कहा जा चुका है कि द्विवेदीजी न केवल परिनिष्ठित सम्पादक थे, वरन् एक उच्च कोटि के शास्त्र निष्णात समीक्षक भी थे । सम्पादक के रूप में ही नहीं, आलोचक के रूप में मी हिन्दी - वाङ् मय के संवर्द्धन के लिए उन्होंने उदीयमान लेखकों को यथाशक्य प्रोत्साहित