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________________ १७६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ४. " विषय के अनुकूल शब्द-स्थापना करनी चाहिए ।" ५. " कविता लिखने में व्याकरण के नियमों की अवहेलना न करनी चाहिए ।" ६. "जहाँतक सम्भव हो, शब्दों का मूल रूप न बिगाड़ना चाहिए।" ७. " शब्दों को यथास्थान रखना चाहिए ।" ८. "आजकल की बोलचाल की हिन्दी की कविता उर्दू के विशेष प्रकार के छन्दों में अधिक खुलती है, अतः ऐसी कविता लिखने में तदनुकूल छन्दयुक्त होना चाहिए।" ९. " सारांश यह कि कविता लिखते समय कवि के सामने एक ऊँचा उद्देश्य अवश्य रहना चाहिए ।" १०. “ एक भाषा की कविता का दूसरी भाषा में अनुवाद करनेवालों को यह बात स्मरण रखनी चाहिए ।" इनके अतिरिक्त, 'कवि-कर्त्तव्य' में सहस्रों ऐसे वाक्य मिलते हैं, जिनका मूलभूत स्वर उपदेशमूलक है और जो कवि को लक्ष्य बनाकर लिखे गये हैं । द्विवेदीजी की उपदेशमूलक आलोचना के महत्त्व को हम तद्य गीन साहित्यिक परिस्थितियों के सन्दर्भ मे भी आँक सकते हैं । इस प्रकार की आलोचनाएं विशिष्ट परिस्थितियों की देन होती है और उनकी जड़ें उनमें ही आबद्ध पाई जाती हैं। जिस देश में और जिस-जिस युग में इन परिस्थितियों का आविर्भाव होता है उस उस देश और काल में ऐसी समालोचनाओं का प्रणयन होता रहा है । रोजर ऐस्कम ( Roger Ascham), पटनम (Puttenham), वेब (Webbe ), चेक (Cheke) आदि पुनर्जागरण के अँगरेजी-आलोचक कुछ ऐसी ही आलोचनाएँ लिखते थे । द्विवेदीजी के समक्ष जो परिस्थितियाँ थीं, कुछ वैसी ही परिस्थितियों में उपर्युक्त अँगरेजी-आलोचकों ने कविकर्त्तव्य का ज्ञान कराया था । जब कवि अपना कर्त्तव्य भूल जाते हैं अथवा जब अपने शैशव में कविता अपक्व होती है, तब द्विवेदीजी जैसे सुधी आलोचकों का अवतरण होता है। ऐसे आलोचक कवि का पथ-प्रदर्शन करते हैं और साथ ही पाठकों को इस तथ्य का ज्ञान कराते हैं कि वे कवि से किन-किन बातों की अपेक्षा कर सकते हैं । 'कवि-कर्त्तव्य' जैसे निबन्धों का प्रभाव द्विमुखी, द्विस्तरीय होता है । इनसे पाठक को भी कवि - कर्त्तव्य का यथेष्ट ज्ञान हो जाता है और वह कवि से उन्हीं बातों की अपेक्षा करता है, जिनका सम्बन्ध कवि के कर्त्तव्य से है । इस प्रकार, आलोचक कवि का नहीं, अपितु पाठकों का भी पथ प्रदर्शक बन जाता है । वह पाठकों के अवचेतन में प्रविष्ट होकर उनके दृष्टिकोण को प्रभावित करता है और पाठक अनायास ही जान जाते हैं कि उन्हें कवि से किन-किन बातों की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए । 'कवि- कर्त्तव्य' को परिभाषित करने के क्रम में द्विवेदीजी ने अनेकानेक महत्त्वपूर्ण स्थापनाओं की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है । इन स्थापनाओं में उनकी
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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