________________
गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १७३
ओर उन्मुख हुआ । उनके इस प्रयत्न से कतिपय लोग नाराज भी रहे और उन्हें तरह-तरह के अपवादों का विषय बनना बड़ा, पर वे गज की मस्ती से अपने उद्देश्य की ओर निरन्तर बढ़ते रहे ।"१
द्विवेदीजी के सात्त्विक स्पर्श से हिन्दी भाषा का रूप परिवर्तित हुआ । उनके समय में हिन्दी का स्वरूप संस्कृतनिष्ठता, उर्दू, अंगरेजी, व्रजभाषा एवं अन्य दूषणों से बिगड़ गया था । उन्होंने हिन्दी को इन विकृतियों से बचाया और उसके निजी व्यवस्थित तथा सुस्पष्ट मार्ग का निर्देश किया । भाषा सुधार उनके आलोचक एवं सम्पादकीय जीवन का प्रधान कर्म रहा । व्याकरण, शब्दविन्यास तथा अशोभन प्रयोगों जैसी गलतियों को वे बड़ी जल्दी पकड़ लेते थे । अपनी इसी सूक्ष्म दृष्टि के द्वारा उन्होंने भाषा के सुधार का ऐतिहासिक कार्य किया और हिन्दी का एक नया सुरुचिपूर्ण रूप सामने रखा। भाषा-समीक्षा के इस कार्य में उनकी कतिपय समीक्षात्मक पुस्तकों की चर्चा उल्लेखनीय है.. जिनमें द्विवेदीजी के भाषा और लिपि सम्बन्धी विचारों का उपस्थापन हुआ है । इन पुस्तकों में 'हिन्दी भाषा की उत्पत्ति', 'साहित्यालाप' और 'वाग्विलास' की गणना की जा सकती है । अपनी भाषा - समीक्षा के द्वारा द्विवेदीजी ने भाषा के लिए जिस परिष्कृत सुधरे हुए रूप को निर्मित किया, वही उनकी सम्पूर्ण साहित्य - साधना का नवनीत कहा जा सकता है । द्विवेदीजी गद्य और पद्य की सभी विधाओं में हिन्दी के इसी निखरे हुए रूप के परिपालन का उपदेश वे अपने समसामयिकों को देते रहते थे, उसी का उन्होंने स्वयं भी उपयोग किया है । व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक समीक्षा की दिशा में भी उनकी भाषा का यही रूप मिलता है । इस सम्बन्ध में डॉ० शंकरदयाल चौऋषि ने लिखा है :
“आलोचना के क्षेत्र में उनकी भाषा अपेक्षया अधिक प्रखर, प्रवाहमयी व्यंग्यपूर्ण तथा चुटीली होती है। पहाड़ी झरने के सदृश उसमें गति, स्वाभाविकता और प्रक्षालन की शक्ति होती है । विशेषता इसमें यह रहती है कि उनके व्यंग्य और कटाक्ष भी उनकी प्रकृति के समान सरल, स्पष्ट तथा व्यावहारिक होते हैं, जिन्हें समझने में न तो समय लगता है, न श्रम । ओज, गाम्भीर्य तथा संयत भाषा की कठोर चट्टानों के मध्य से उनके व्यंग्य, कचोट और मसखरी के शीतल-मधुर निर्झर बहते रहते हैं। इन वाक्य निर्झरों में कहीं भी गतिहीनता, लचरपन, अशुद्धि आदि अवांछनीय तत्त्वों का समावेश नहीं मिलता । उनके भाव स्पष्ट, विचार, सरल तथा भाषा साधु है ।"२
१. डॉ० शिवकरण सिंह : 'आलोचना के बदलते मानदण्ड और हिन्दी - साहित्य' पृ० ३८८ ।
१. डॉ० शंकरदयाल चौऋषि : 'द्विवेदी युग का हिन्दी गद्यशैलियों का अध्ययन पृ० १६० ।